मृदा संरक्षण
मिट्टी के कटाव तथा भू - निम्नीकरण से मिट्टी की उर्वरता में कमी को रोकने की क्रिया को मृदा संरक्षण कहते है भारत सरकार ने इसके निमित्त 1953 में ही केंद्रीय संरक्षण बोर्ड का गठन किया था यह बोर्ड पूरे देश में मृदा संरक्षण की योजनाएँ बनाता है बोर्ड के सुझाव किसानों के अनुभव तथा विशेषज्ञों की सलाह से निम्नलिखित उपाय मृदा संरक्षण के लिए उपयोगी हो सकते है -
- भूमि - उपयोग का नियोजन , अर्थात भूमि के उपयोग और भूमि की उत्पादन - शक्ति का सामंजस्य करना ( वन , कृषि तथा अन्य उपयोगों में समुचित आबंटन करके )
- मिट्टी के तत्वों ( जैसे नाइट्रोजन , पोटैशियम , कैल्शियम , फॉस्फोरस , जीवांश आदि ) की कमी को उर्वरक और खाद्य देकर पूरा करना
- फसल - चक्र अपनाना जिससे मिट्टी के एक ही तत्व का बार - बार शोषण न हो। फसल - चक्र से मिट्टी में जैव पदार्थ और नाइट्रोजन की आपूर्ति होती रहती है तथा मिट्टी में विषाक्त पदार्थो का विकास नही हो पाता।
- मिट्टी को अपने स्थान पर बनाए रखने , अर्थात मिट्टी का कटाव रोकने के लिए पशुओं की चराई पर नियंत्रण , वनों की अंधाधुन कटाई पर रोक लगाना , ढालू भूमि पर अनुप्रस्थ जुताई या समोच्च जुताई करना , पट्टीदार खेती करना , अर्थात कई प्रकार की फसले समांतर समोच्च पट्टियों में लगाना , सीढ़ीनुमा खेती करना , मिश्रित खेती करना , खेती में जीवांश डालते रहना , जिससे मिट्टी में जलग्रहण की शक्ति बढ़ सके , पाशर्व जलप्रवाह की व्यवस्था करना , स्थान - स्थान पर बाँध बनाना , ढालो पर झाड़िया और पेड़ लगाना , भारी मशीनों द्वारा भूमि को समतल कर उसमें वनस्पति लगाना आदि उपाय उपयुक्त सिद्ध हुए है।
- भूमि को परती छोड़ना हो तो उसमें आवरण फसले लगाई जाए ताकि मिट्टी को जैव पदार्थ तथा हरी खाद की प्राप्ति हो सके।
- खेत पानी में डूबा न रहे , इसके लिए जल के निकास का समुचित प्रबंध करना।
- मरुस्थलीय क्षेत्रों में सुचारु रूप से सिंचाई की व्यवस्था करना।
- सूर्य की तेज गर्मी और भारी वर्षा से मिट्टी की रक्षा करने के लिए वानस्पतिक आवरण बिछाना , अर्थात अधिक से अधिक वृक्षारोपण कार्यक्रम अपनाना।
- स्थानांतरित कृषि पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए इसके बदले सरकारी सहायता से इनके कुछ क्षेत्रों में रासायनिक विधियों से भूमि की उर्वरता बढ़ाकर निवासियों के लिए स्थायी निवास बनाना चाहिए प्राय जनजातियाँ ही ऐसी खेती करती है स्थायी निवास और कुटीर - उधोगों की स्थापना से उनका घुमंतू स्वभाव भी बदल सकता है और उनकी आर्थिक स्थिति भी सुधर सकती है।
- कीटनाशी के रूप में एल्ड्रिन नामक रसायन का प्रयोग प्रतिबंधित कर देना चाहिए इससे मेढकों की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है ज्ञातव्य है की मेढ़क कीड़े - मकोड़ो को खाकर उनकी संख्या कम करता है एल्ड्रिन के प्रयोग से मेढ़क तो कम होते है परंतु कीड़े - मकोड़े अवाध रूप से बढ़ने लगते है।
भारत सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रयास हो रहे है और कई स्थानों पर मृदा संरक्षण में अनुकूल विकास हुआ है विज्ञान और पर्यावरण की समिति ने 1999 में इसके संबंध में उत्साहवर्द्धक रिपोर्ट दी है कुछ टिप्पणियाँ निम्नलिखित है :-
- शिवालिक की ढ़लानो पर हरियाणा के सुखोमाजरी गॉंव के लोग मिट्टी के कटाव तथा भू - निम्नीकरण के कारण परेशान रहे परंतु सरकारी तथा स्थानीय संस्थाओं के परिश्रम से घास लगाने , वृक्षारोपण , तालाब खोदने जैसी क्रियाओं से अब इनका गॉंव सुखोमाजरी सचमुच खुशहाल हो गया है 1976 में वहाँ प्रतिहेक्टेयर 13 वृक्ष ही थे 1992 में उनकी संख्या 1272 हो गई अर्थात 100 गुणा वृद्धि हुई है अब वहाँ की मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ गयी है।
- पर्यावरण के सुधार से आर्थिक संसाधनों में भी वृद्धि स्वाभाविक है सुखोमाजरी में 1979 में प्रतिवर्ष एक परिवार की औसत वार्षिक आमदनी 10000 रूपये थी जो 1984 में 15000 रूपये हो गई इससे स्पष्ट है की पर्यावरण सुधार से खेती में सुधार होता है पशुपालन भी लाभप्रद हो जाता है और पूरे देश का आर्थिक विकास होता है।
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