सूखा ( सुखाड़ )
सूखा लंबे समय तक अपर्याप्त वर्षा होने से समस्त जीव - जंतुओं का जीवनयापन दुष्कर हो जाता है कृषि उत्पादन घट जाता है और कभी - कभी पशुओं तक को पीने का पानी नही मिलता। इस स्थिति को सूखा कहते है अत्यधिक वाष्पीकरण से जलाशय भी सूख जाते है और भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे गिर जाता है।
सूखे की व्याख्या :-
- मौसमविज्ञान के अनुसार लंबे समय तक अपर्याप्त वर्षा और इसके सामयिक एवं स्थानीय वितरण असंतुलित होने को सूखा कहते है।
- कृषि - कार्यो को ध्यान में रखकर यदि मिट्टी में आर्द्रता की कमी इस स्तर तक हो जाए की फसले मुरझा जाए और 30 प्रतिशत से भी कम खेती में सिंचाई हो पाए तो इसे कानूनी रूप से सूखा माना जाता है।
- जलविज्ञान के अनुसार जल - ग्रहण क्षेत्र जलाशय और झीलों में जल का स्तर वर्षा होने के बाद भी नीचे गिर जाए तो इसे सूखा कहते है।
- जब परिस्थितिक तंत्र में जल की इतनी कमी हो जाए कि उत्पादकता घट जाए और इसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में तनाव उत्पन्न हो जाए या तंत्र क्षतिग्रस्त हो जाए तो इसे पारिस्थितिक सूखा कहते है।
- फसलों के सूखने से उत्पादन कम होता है और खाद्य - समस्या उत्पन्न हो जाती है अधिकांश ग्रामीणों की जीविका फसलों पर ही निर्भर करती है फसलों के सूखने से उन्हें सबसे अधिक कष्ट होता है और भूखों मरने की स्थिति आ जाती है फसलों के सूखने से राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक हानि होती है इसे कृषि - अकाल कहते है।
- फसलों के सूखने पर मवेशियों के लिए चारा उपलब्ध नहीं हो पाता है इसे तृण - अकाल कहते है।
- वर्षा कम होने या अनावृष्टि होने अर्थात सूखा पड़ने से जल की उपलब्धता एक समस्या बन जाती है यहाँ तक की पेयजल की भी आपूर्ति नहीं हो पाती है तो इसे जल - अकाल कहते है।
- यदि उपयुक्त तीनो परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाए तो त्रि-अकाल या महाअकाल उत्पन्न होता है जो विध्वंसक होता है।
- सूखा - प्रभावित क्षेत्रों में मानव - उत्प्रभास , पशुपलायन और मवेशियों की मौत एक सामान्य घटना है।
- जल की कमी से थोड़ा - बहुत उपलब्ध जल भी प्राय दूषित हो जाता है सफाई की कमी से और दूषित जल पीने से प्राय आंत्रशोथ , हैजा , पीलिया , हेपेटाइटिस और इसी तरह की कई बीमारियाँ फैल जाती है और महामारी का रूप ले लेती है।
सूखे से बचाव के उपाय :-
सूखे से बचाव के उपाय निम्नलिखित है :-
- तात्कालिक या अल्पकालिक योजनाएँ
- दीर्घकालिक योजनाएँ
तात्कालिक या अल्पकालिक योजनाएँ :-
राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर योजनाएँ बनाते समय सूखाग्रस्त क्षेत्रों की समस्याओं को ध्यान में रखना चाहिए आवश्यक होने पर
- पेयजल का सुरक्षित भंडारण एवं वितरण की समुचित व्यवस्था रहनी चाहिए।
- जल - संबंधी बीमारियों के लिए आवश्यक दवाओं और अन्य चिकित्सीय सहायता का प्रबंध होना चाहिए।
- पशुओं के चारे का भंडार होना चाहिए जिसे आवश्यकता पड़ने पर आसानी से वितरित किया जा सके।
- अधिक कठिन परिस्थिति में मवेशियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचने का प्रबंध होना चाहिए जहाँ संचित जल उपलब्ध हो।
- आपदा प्रबंधन के अधीन अनाज का एक विशेष कोष रहना चाहिए जिससे खाद्य - समस्या से लोगों को मुक्ति मिल सके।
दीर्घकालिक योजनाएँ :-
राष्ट्रीय स्तर पर कुछ योजनाएँ दीर्घकालीन समस्या को दृष्टि में रखकर बनानी चाहिए जैसे -
- भूमिगत जल के भंडार का पता लगाया जाना चाहिए इस जल को नलकूपों द्वारा खींचकर सिंचाई या पीने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
- जल - प्रचून क्षेत्रों से जल आभाव वाले क्षेत्रों में पहुचाने के लिए नहर या पाइपलाइन का प्रबंध रहना चाहिए।
- उपग्रहों की सहायता से भूमिगत जल की संभावना का पता लगाना चाहिए।
- सड़को के किनारो पर और खाली पड़ी जमीन पर पर्याप्त मात्रा में वनरोपण को प्रोत्साहित करना जिससे हरियाली में वृद्धि हो और वर्षा की संभावना बढ़ सके।
- नदियों को परस्पर जोड़ना जिससे अधिक जल को ऐसे क्षेत्र में भेजा जा सके जहाँ इसकी आवश्यकता है इससे बाढ़ और सुखाड़ दोनों को कम किया जा सकता है चुकी जब उत्तर भारत में बाढ़ आती है तब दक्षिणी में जल आभाव रहता है और जब दक्षिण में जोड़ो की वर्षा होती है तब उत्तरी भाग में वर्षा नहीं होती। इसलिए नदियों को जोड़ने से पूरे देश की समस्या दूर की जा सकती है हिमालय की सदानीरा नदियों का जल मध्य , पश्चिम और दक्षिण क्षेत्र में सिंचाई के लिए सालोभर उपलब्ध हो सकता है।
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