लैंस क्या है? यह कितने प्रकार के होते है?

लैंस ( Lens ) 

दो ज्यामितीय आकृति से घिरा हुआ वह पारदर्शी माध्यम जिसका कम से कम एक सतह वकृत हो उसे लैंस कहते है। 

  • यह प्रायः कांच का बना देता है।  
  • इसे ताल भी कहा जाता है। 
लैंस मुख्यतः दो प्रकार के होते है :-
  1. गोलीय लैंस ( Sphcrical lens )
  2. बेलनाकार लैंस ( Cylindrical lens )
गोलीय लैंस :-

वैसा लैंस जिसका अपवर्तक सतह गोलाकार होता है उसे गोलीय लैंस कहते है। 

गोलीय लैंस दो प्रकार के होते है :-
  1. उत्तल लैंस ( convex lens )
  2. अवतल लैंस ( concave lens )
उत्तल लैंस :-

वैसा लैंस जिसके बीच का भाग मोटा तथा किनारे का भाग पतला होता है उसे उत्तल लैंस कहते है। 
  • इसका दोनो अपवर्तक सतह उभरा होता है 
  • इसे अभिसारी लैंस भी कहा जाता है 

उत्तल लैंस तीन प्रकार के होते है :-
  1. समतलोत्तल लैंस 
  2. अवतलोतल लैंस 
  3. उभयोत्तल लैंस  
अवतल लैंस :- 

वैसा लैंस जिसके  किनारे का भाग मोटा तथा बीच का भाग पतला हो उसे अवतल लैंस कहते है। 
  • इसका दोनो अपवर्तक सतह धसा होता है 

     
अवतल लैंस तीन प्रकार के होते है :-
  1. समतलावतल लैंस 
  2. उत्तलावतल लैंस 
  3. उभयावतल लैंस 
बेलनाकार लैंस :-

वैसा लैंस जिसका अपवर्तक सतह बेलनाकार होता है उसे बेलनाकार लैंस कहते है। 

उत्तल लैंस और अवतल लैंस मे अंतर :-

उत्तल लैंस :-
  • इसके बीच का भाग मोटा होता है तथा किनारे का भाग पतला होता है 
  • इसका फोकस धनात्मक होता है 
  • इसका फोकस वास्तविक होता है 
  • इस लैंस को अभिसारी लैंस कहा जाता है 
  • इस लैंस मे प्रतिबिंब वास्तविक एंव काल्पनिक दोनो बनता है 
अवतल लैंस :-
  • इस लैंस के किनारे का भाग मोटा तथा बीच का भाग पतला होता है 
  • इसका फोकस ऋणात्मक होता है 
  • इसका फोकस काल्पनिक होता है 
  • इस लैंस को अपसारी लैंस कहा जाता है 
  • इस लैंस मे केवल काल्पनिक प्रतिबिंब बनता है 
लेंस से सबंधित प्रमुख पद :-

वक्रता केंद्र :-

लेंस जिन दो खोखले गोले से मिलकर बना होता है उस गोले के केंद्र को लेंस का वक्रता केंद्र कहते है। 
  • किसी लेंस में दो वक्रता केंद्र होते है।
प्रधान अक्ष :-

किसी लेंस के दोनो वक्रता केंद्र को मिलाने वाली रेखा प्रधान अक्ष कहलाती है। 

प्रकाशीय केंद्र :-

किसी लेंस के अंदर प्रधान अक्ष पर स्थित वह बिंदु जिनसे होकर प्रकाश की किरणे सीधे चली जाती है उसे प्रकाशीय केंद्र कहते है। 
  • इसे O से सूचित किया जाता है।  
वक्रता त्रिज्या :-

किसी लेंस के प्रकाशीय केंद्र और वक्रता केंद्र के बीच की दूरी को उस लेंस की वक्रता त्रिज्या कहते है। 

लेंस का द्वारक :-

किसी लेंस के परिधीय व्यास को लेंस का द्वारक कहते है। 

लेंस का फोकस :-

प्रधान अक्ष के समांतर आ रही किरणे अपवर्तन के पशचात प्रधान अक्ष जिस बिंदु पर मिलती है या मिलती हुई प्रतित होती है उसे उस लेंस का फोकस कहते है। 
  • उत्तल लेंस का फोकस वास्तविक होता है 
  • अवतल लेंस का फोकस काल्पनिक होता है 
  • इसे मुख्य फोकस भी कहा जाता है। 
फोकस दुरी :-

लेंस के प्रकाशीय केंद्र और मुख्य फोकस के बीच की दुरी को फोकस दुरी कहते है। 
  • उत्तल लेंस की फोकस दुरी धनात्मक होती है 
  • अवतल लेंस की फोकस दुरी ऋणात्मक होती है 
  • मोटे लेंस की फोकस दुरी पतले लेंस की अपेक्षा कम होती है 
लेंस की क्षमता (power of lens ) :-

किसी लेंस के फोकस दूरी के व्युत्क्रम को लेंस की क्षमता कहते है.यदि किसी लेंस की फोकस दूरी f हो, तो उसकी क्षमता P = 1/f डॉयोप्टर होती है। 
  • इसे D से सूचित किया जाता है 
  • इसका S.I मात्रक डॉयोप्टर होता है 
  • उत्तल लेंस की क्षमता धनात्मक होती है 
  • अवतल लेंस की क्षमता ऋणात्मक होती है 
  • यदि दो लेंस को परस्पर सटाकर रख दे , तो उनकी क्षमताएँ जुड़ जाती है तथा संयुक्त लेंस की क्षमता दोनों लेंसों की क्षमताओ के योग के बराबर होता है। 
उत्तल लेंस को अभिसारी लेंस क्यों कहा जाता है :-

उत्तल लेंस का प्रत्येक भाग अनेक छोटे - छोटे प्रिज्मों से मिलकर बना होता है उत्तल लेंस में प्रिज्मों का आधार प्रधान अक्ष की ओर होता है चूकि प्रिज्मों से होकर जाने वाली प्रकाश की किरणे हमेशा आधार की ओर झुक जाती है इसलिए उत्तल लेंस के ऊपर आधे भाग पर आपतित होने वाली किरणे नीचे की ओर तथा नीचे के आधे भाग पर आपतित होनेवाली किरणे ऊपर की ओर झुक जाती है इस तरह उत्तल लेंस द्वारा आपतित प्रकाश की किरणे लेंस की दूसरी ओर एक बिंदु पर अभिसृत होती है इसलिए उत्तल लेंस को अभिसारी लेंस कहा जाता है। 

अभिसारी लेंस 

अवतल लेंस को अपसारी लेंस क्यों कहते है :-

अवतल लेंस का प्रत्येक भाग अनेक छोटे - छोटे प्रिज्मों बना हुआ मालूम पड़ता है अवतल लेंस के प्रिज्मों का आधार बाहर की ओर होता है प्रकाश की किरण जब अवतल लेंस पर आपतित होती है तो इससे निकलने के बाद फैलकर दूर - दूर हो जाती है इस तरह अवतल लेंस द्वारा प्रकाश की किरण एक बिंदु से अपसृत होती हुई मालूम होता है इसलिए अवतल लेंस को अपसारी लेंस कहते है।

अपसारी लेंस 

About us

 Welcome to scienceparts.blogspot.com Our website has been started on 18th June 2020. We will help you in your education, and friends will find you all the posts in Hindi on our website,


We have started this website to solve all queries, we will help you in your field in Hindi and language.

In today's Internet era, many people face different problems in different ways, that is why our scienceparts.blogspot.com team has started this website, here we will help all the people in education fields.

If you have any problems in  Education or any then you have given a form at the end of this page, by putting your name and email it, you can ask us any questions, our scienceparts.blogspot.com
 team You will do your best to help.

दर्पण क्या है? यह कितने प्रकार के होते है?

 दर्पण ( Mirror )

वह चिकनी और चमकिली सतह जिससे प्रकाश की किरणे निश्चित नियम का पालन करते हुए परावर्तित हो जाते है तथा जिसका कम से कम एक भाग रज्जीत( रंगा ) हो उसे दर्पण कहते है। 

परावर्तक सतह के आधार पर दर्पण को तीन भागो मे बाटा गया है :-

  1. समतल दर्पण ( Plane mirror )
  2. गोलीय दर्पण ( Spherical mirror )
  3. परवलयीक दर्पण ( Farabolic mirror ) 
समतल दर्पण :-

जिस दर्पण कि परावर्तक सतह समतल होती है उसे समतल दर्पण कहते है। 

समतल दर्पण की विशेषताएँ :-
  • इसमे बने प्रतिबिंब का आकार वस्तु के आकार के बराबर होता है
  • इसमे बना प्रतिबिंब काल्पनिक तथा सीधा होता है 
  • इसकी फोकस दूरी हमेशा अनंत होती है 
  • इस दर्पण के सामने जितनी दुरी पर वस्तु रखी जाती है उतनी ही दुरी पर दर्पण के पीछे वस्तु का प्रतिबिंब बनता है 
Note :-

यदि किसी समतल दर्पण पर कोई किरण आपतित होकर परावर्तित हो जाती है तब यदि समतल दर्पण को ɸ कोण से घुमा दिया जाए तो परावर्तित किरण 2ɸ कोण से घूम जाता है। 

गोलीय दर्पण ( Spherical mirror ) :-

जिस दर्पण का परावर्तक सतह खोखले गोले का एक भाग होता है उसे गोलीय दर्पण कहते है। 

गोलीय दर्पण दो प्रकार के होते है :-
  1. अवतल दर्पण ( Concave mirror )
  2. उत्तल दर्पण ( Convex mirror )
अवतल दर्पण :-

जिस गोलीय दर्पण का परावर्तक सतह धसा होता है उसे अवतल दर्पण कहते है। 

अवतल दर्पण कि विशेषताएँ :-
  • इसका परावर्तक सतह केन्द्र की ओर होता है 
  • इस दर्पण मे वास्तविक तथा काल्पनिक दोनो प्रकार के प्रतिबिंब बनते है 
  • इसमे किसी वस्तु का छोटा - बड़ा या बराबर प्रतिबिंब बनता है 
  • इसका फोकस वास्तविक होता है 
  • इसका फोकस दुरी ऋणात्मक होता है 
उत्तल दर्पण :-

जिस गोलीय दर्पण का परावर्तक सतह उभरा होता है उसे उत्तल दर्पण कहते है। 

उत्तल दर्पण की विशेषताएँ :-
  • इसका परावर्तक सतह केन्द्र के विपरीत होता है 
  • इस दर्पण मे केवल काल्पनिक सीधा प्रतिबिंब बनता है 
  • इसका फोकस काल्पनिक होता है 
  • इसका फोकस दुरी धनात्मक होता है 
  • इसमे हमेशा वस्तु से छोटा प्रतिबिंब बनता है 
अवतल दर्पण का उपयोग :-

अवतल दर्पण का उपयोग निम्नलिखित है :-
  1. हजामति दर्पण के रूप मे 
  2. सोलर कुकर मे 
  3. गाड़ियो के हेडलाइट, टॉर्च इत्यादि मे परावर्तक सतह के रूप मे 
  4. खगोलीय दूरबीन मे 
  5. डॉक्टरो द्वारा रोगियो के गले , नाक , कान इत्यादि जॉंच मे 
उत्तल दर्पण का उपयोग :-

उत्तल दर्पण का उपयोग निम्नलिखित है 
  1. गाड़ियो के साइड मिलर या पिष्टदर्शी दर्पण के रूप मे 
  2. गलियो मे स्टेट लाइट के परावर्तक सतह के रूप मे 
परवलयीक दर्पण :-

जिस दर्पण का परावर्तक सतह पूर्णतः गोलीय नही होता है उसे परवलयीक दर्पण कहते है। 

दर्पण से संबंधित मुख्य पद :-
  1. ध्रुव ( Pole )
  2. वक्रता केन्द्र ( Centre of curvature )
  3. वक्रता त्रिज्या ( Radius of curvature )
  4. प्रधान अक्ष या मुख्य अक्ष ( Principal axis )
  5. फोकस या नाभि ( Focus )
  6. फोकस दुरी या नाभ्यांतर ( Focal length )
  7. दर्पण का द्वारक ( Aperture of mirror )
  8. फोकस तल ( Focus floor )
ध्रुव :-

किसी दर्पण के सतह के मध्य बिन्दु को ध्रुव कहते है। 
  • इसे P से सूचित किया जाता है। 
वक्रता केन्द्र :-

दर्पण जिस खोखले गोले का बना होता है उस गोले के केन्द्र को वक्रता केन्द्र कहते है। 
  • इसे C से सूचित किया जाता है 
  • अवतल दर्पण मे वक्रता केन्द्र परावर्तक सतह के सामने होता है 
  • उत्तल दर्पण मे वक्रता केन्द्र परावर्तक सतह के पीछे होता है 
वक्रता त्रिज्या :-

दर्पण के ध्रुव और वक्रता केन्द्र के बीच की दुरी को वक्रता त्रिज्या कहते है। 
  • इसे R से सूचित किया जाता है 
प्रधान अक्ष या मुख्य अक्ष :-

किसी दर्पण के ध्रुव और वक्रता केन्द्र से होकर गुजरने वाली रेखा को प्रधान अक्ष कहते है 
  • यहाँ PCX प्रधान अक्ष है
फोकस या नाभि :-

प्रधान अक्ष के समांतर आ रही निकटवर्ती प्रकाश की किरणे परावर्तन के बाद प्रधान अक्ष के जिस बिंदु पर मिलती है या मिलती हुई प्रतीत होती है उसे उस दर्पण का फोकस कहते है। 
  • इसे F से सूचित किया जाता है 
फोकस दुरी :-

किसी दर्पण के फोकस और ध्रुव के बीच की दुरी को फोकस दुरी कहते है। 
  • इसे f से सूचित किया जाता है 
  • इसे नाभ्यांतर भी कहा जाता है 
दर्पण का द्वारक :-

किसी दर्पण की चौड़ाई को उस दर्पण का द्वारक कहते है।  

फोकस तल :-

फोकस से होकर गुजरने वाले लंबत तल को फोकस तल कहते है। 

कैथोड किरण और एनोड किरण क्या है?

कैथोड किरण  

काँच की एक लंबी नली ( विसर्जन नली ) मे कोई गैस लेकर लगभग 0.01 mgh दाब पर धातु के दो इलेक्ट्रॉन के बीच 1000 वोल्ट विभवांतर की विधुत धारा प्रभावित किया गया जिससे कैथोड के सामने हरे रंग की किरणे या चमक दीवार पर उत्पनन हुई जिससे निष्कर्ष निकलता है की कैथोड से एक विशेष प्रकार की किरणे निकलती है जो सीधी रेखा मे गमन करके सामने की दीवार पर परती है इन किरणो का नाम गोल्टस्टीन ने कैथोड किरणे रखा। 

कैथोड किरण के गुण :-

  1. कैथोड किरणो के मार्ग मे जब किसी हलकी वस्तु को रखा गया तो उस वस्तु मे गति उत्पनन हुई इससे सिद्ध होता है की ये किरणे अत्यंत छोटे - छोटे द्रव कणो से बने होते है। 
  2. इन किरणो के मार्ग मे किसी वस्तु को रखने पर उसमे ऊष्मा उत्पनन होती है 
  3. जब इन किरणो को विधुत या चुम्बकीय क्षेत्रो से गुजारा जाता है तो यह अपने पथ से विचलित हो जाती है इससे स्पष्ट होता है की किरणे ऋण आवेशित होती है। 
  4. जब इसके मार्ग मे किसी अपारदर्शी वस्तु को रखी जाती है तो इसके पीछे छाया का निर्माण होता है इससे सिद्ध होता है की ये किरणे तीव्र वेग से सीधी रेखा मे गमन करती है। 
  5. इसका आवेश इलेक्ट्रॉन के आवेश के बराबर होती है 1.6 * 10-19 कूलाबं ( C )
  6. इसकी मात्रा या द्रव्यमान इलेक्ट्रॉन के द्रव्यमान के बराबर 9.1 * 10-31kg होती है। 
  7. कैथोड किरण को केवल गैस का प्रयोग करके पैदा किया जा सकता है 
  8. कैथोड किरणे अदृश्य होती है और सीधी रेखाओ में चलती है 
  9. यह फोटोग्राफीक प्लेट को प्रभावित करता है 
  10. कैथोड किरण का वेग , प्रकाश के वेग का 1/10 गुणा होता है 
  11. इसकी वेधन क्षमता कम होती है यह पतली धातु की चादर से पार कर जाती है 
  12. यह गैसो को आयनीकृत कर देती है एंव धातु पर उष्मीय प्रभाव दिखलाती है 
  13. जब कैथोड किरणे किसी उच्च परमाणु क्रमांक वाली धातु पर गिरती है तो X-किरणे उत्पनन करती है 

एनोड किरण :-

गोल्डस्टीन नामक वैज्ञानिक ने विसर्गनली के कैथोड मे बारीक छिद्र कर प्रयोग करने के बाद देखा की एनोड से कैथोड की और कुछ विशेष प्रकार की किरणे गमन कर रही है जिसका नाम उन्होंने एनोड किरणे रखा। 

एनोड किरण की उत्पति :-

कैथोड किरणो के इलेक्ट्रॉन विसर्गनली मे गैस के परमाणु पर प्रहार करते है जिसके फलस्वरूप परमाणुओ मे से इलेक्ट्रॉन निकल जाते है तथा परमाणु धनायन मे परिवर्तित हो जाते है अतः एनोड किरणे एनोड के द्रव्यमान से नही बल्कि एनोड और कैथोड के बीच के गैस से उत्पन होती है। 

एनोड किरण के गुण :-
  1. इन कणो का द्रव्यमान हाइड्रोजन परमाणु के द्रव्यमान के लगभग बराबर होता है। 
  2. इन कणो पर इकाई धन आवेश रहता है जो इलेक्ट्रॉन के आवेश के बराबर लेकिन विपरीत चिन्ह वाले होते है। 

विधुत चालकता क्या है?

विधुत चालकता ( Electrical conductivity )  

किसी ठोस पदार्थ मे विधुत आवेश को प्रवाहित करने की जो क्षमता होती है उसे विधुत चालकता कहते है। 

विधुत चालकता के आधार पर ठोस या क्रिस्टल को तीन भागो मे बाटा गया है :-

  1. सूचालक ( conductor )
  2. अचालक ( insulator )
  3. अर्द्धचालक ( semiconductor )  
सूचालक या चालक :-

वे ठोस जिनमे विधुत धारा का प्रभाव आसानी से हो सकता है तथा जिसकी विधुत चालकता  107Ω-1m-1 होता है उसे सूचालक कहते है। 
  • चालक धातु या आयनिक ठोस हो सकते है 
  • मुक्त इलेक्ट्रॉन के प्रवाह के कारण धातु चालक होते है 
  • धातुओ की चालकता को करनेल तथा संयोजी इलेक्ट्रॉन वाले इलेक्ट्रॉन समुद्र प्रतिरूप सिद्धांत तथा आण्विक कक्षक सिद्धांत पर आधारित बेण्ड सिद्धांत द्वारा समझाया जा सकता है 
  • आयनिक ठोस आयनो के प्रभाव के कारण विधुत का चालन करते है 
  • आयनिक ठोस प्रायः ठोस अवस्था मे विधुत का चालन नही करते है लेकिन गलित या विलयन के अवस्था मे विधुत का चालन करते है। 
अचालक या कुचालक :-

वे ठोस जिनमे विधुत धारा का प्रभाव नही होता है तथा जिसकी विधुतीय चालकता  10-20 से  10-10 Ω-1m-1 के बीच होती है उसे कुचालक कहते है। 
  • इसे विधुत रोधी भी कहा जाता है 
  • वेणु सिद्धांत के अनुसार विधुत रोधी मे संयोजी बेण्ड और चालन बेण्ड मे बहुत अधिक ऊर्जा अंतराल होता है 
अर्द्धचालक :-

वे ठोस जिसमे विधुत धारा का प्रवाह अल्प मात्रा मे होता है तथा जिसकी विधुत चालकता 10-6 से 10Ω-1m-1 के बीच होता है उसे अर्द्धचालक कहते है। 
  • अर्द्धचालक के संयोजी बेण्ड और चालन बेण्ड मे ऊर्जा अंतराल बहुत कम होता है लेकिन ताप बढ़ने पर यह और भी बढ़ सकता है 
  • इसका उपयोग ट्रांजिस्टर डिजिटल कैमरा तथा डिजिटल कम्प्यूटर मे किया जाता है इसके अलावा इसका उपयोग सोलर बैटरी और टेलीविजन के सेटो मे किया जाता है। 
विधुत रोधी दो प्रकार के होते है :-
  1. आंतर अर्द्धचालक ( Interinsic semiconductor )
  2.  बाह्य अर्द्धचालक ( Extrinsic semiconductor )
आंतर अर्द्धचालक :-

जब किसी अचालक ठोस पदार्थो मे सहसंयोजन बंधन टूटने के कारण इलेक्ट्रॉन मुक्त हो जाते है और वे गमन करने लगते है जिससे विधुत का अल्प चालन होने लगता है तो इस प्रकार निर्मित अर्द्धचालक को आंतर अर्द्धचालक कहते है। 
  • इसे आंतर निहित अर्द्धचालक भी कहा जाता है। 

बाह्य अर्द्धचालक :-

जब किसी अचालक या अर्द्धचालक मे बाहरी अशुद्वियो को मिलाया जाता है तो उसमे विधुत चालकता आ जाती है या पहले की अपेक्षा विधुत चालकता मे वृद्वि हो जाती है तो इस प्रकार निर्मित अर्द्धचालक को बाह्य अर्द्धचालक कहते है। 

डोपिंग या डोपीन :-

किसी अचालक ठोस पदार्थो मे बाहर से अशुद्वियो के रुप मे त्रिसंयोजी या पंचसंयोजी तत्वो को मिलाकर अर्द्धचालक बनाने की प्रक्रिया को डोपीन कहा जाता है। 

n - टाइप अर्द्धचालक :-

जब किसी अर्द्धचालक मे उससे उच्च वर्ग वाले धातु परमाणु को मिलाया जाता है तो उससे निर्मित अर्द्धचालक को n - टाइप अर्द्धचालक कहते है। 

उदाहरण :- 

शुद्व Si विधुत रोधी होता है इसकी संरचना मे इसका प्रत्येक परमाणु चार अन्य Si परमाणु से सहसंयोजन बंधनो द्वारा चतुष्फलकीय रूप मे जुड़ा होता है 

यदि Si मे As की अल्प मात्रा मे मिला दिया जाए तो इसकी विधुत चालकता बढ़ जाती है जिससे Si अर्द्धचालक बन जाता है Si परमाणु मे चार संयोजी इलेक्ट्रॉन होते है जबकि As के परमाणु मे 5 अतः As का पंचम आबंधित इलेक्ट्रॉन मुक्त होकर क्रिस्टल चालक मे गमन करने लगता है ये मुक्त इलेक्ट्रॉन विधुत का संचालन करते है इलेक्ट्रॉन के ऋणावेशित होने के कारण इसे n - टाइप अर्द्धचालक कहते है 


p - टाइप अर्द्धचालक :-

जब किसी अचालक ठोस पदार्थ मे उससे कम संयोजी इलेक्ट्रॉन वाले परमाणुओ को मिलाया जाता है तो उसमे इलेक्ट्रॉन मुक्त हो जाते है और विधुत चालन का अल्प गुण आ जाता है इस प्रकार निर्मित अर्द्धचालक को p - टाइप अर्द्धचालक कहते है। 
  • इसे इलेक्ट्रॉन न्यून अशुद्वियाँ भी कहा जाता है 
उदाहरण :-

जब शुद्व सिलिकन मे अल्प मात्रा मे बोरॉन ( B ) को मिलाया जाता है तो सिलिकन के केवल तीन संयोजी इलेक्ट्रॉन बोरॉन के तीन संयोजी इलेक्ट्रॉन के साथ बंधन बनाने मे शामिल होते है चूकि सिलिकन के पास चार संयोजी इलेक्ट्रॉन होते है इसलिए सहसंयोजन बंधन बनाने के बजाए छिद्र रिक्तियाँ बना सकते है जो विधुत चालन मे सहायक होते है और ये p - टाइप अर्द्धचालक बना लेते है। 

  • n एंव p टाइप अर्द्धचालक के संयोजन का उपयोग ट्रांजिस्टरो के निर्माण मे किया जाता है। 

पूर्ण आन्तरिक परावर्तन क्या है? पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के शर्तो को लिखें।

 पूर्ण आन्तरिक परावर्तन ( Total internal reflection )

जब आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण के मान से अधिक होता है तो आपतित प्रकाश की किरणे अपवर्तित हुए बिना सघन माध्यम मे ही प्रावर्तित होकर परावर्तन के नियम का पालन करते हुए लौट जाती है तो इस घटना को पूर्ण आंतरिक परावर्तन कहते है। 

पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के शर्ते :-

  1. प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम मे जाना चाहिए 
  2. आपतन कोण का मान क्रांतिक कोण के मान से बड़ा होना चाहिए 
पूर्ण आंतरिक परावर्तन के उदाहरण :-
  1. हीरा का चमकना
  2. रेगिस्तान में मरीचिका का बनना 
  3. जल में पड़ी परखनली का चमकना
  4. काँच में आए दरार का चमकना
पूर्ण आंतरिक परावर्तन के अनुप्रयोग :-
  1. मृग मरिचिका 
  2. प्रकाशीय तंतु 
  3. हिरे का चमकना 
  4. प्रिज्मो की कार्य प्रणाली 
मृग मरिचिका :-

रेगिस्तान मे यात्री एंव ऊट को बालू के स्थान पर जलाश्य दिखाई पड़ता है इस दिष्टी भ्र्म को मृग मरिचिका कहते है यह प्राय गर्मी के दिनो मे होता है जब किसी गर्म दिन मे किसी पेड़ के साथ उल्टा प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है तथा उसके स्थान पर जलाश्य होने का आभास होता है गर्मी के दिनो मे जब पृथ्वी का ताप बढ़ जाता है तो पृथ्वी के पास स्थित वायु का घनत्व कम हो जाता है ज्यो - ज्यो हम ऊपर की और जाते है वायु मंडल का ताप घटता जाता है इस कारण से हवा के परतो का घनत्व और अपवर्तनांक बढ़ता जाता है किसी पेड़ से आने वाले प्रकाश की किरणे पृथ्वी की सतह पर इस प्रकार पहुँचती है की उनका आपतन कोण क्रांतिक कोण से ज्यादा हो जाता है इस प्रकार पूर्ण आंतरिक परावर्तन होता है जिससे दूर खड़ा व्यक्ति उसके प्रतिबिंब के साथ - साथ देखता है तथा जलाश्य होने का आभास होता है। 
प्रकाशीय तंतू :-

ऐसी युक्ति जो प्रकाश को उसकी तीव्रता को खोये बिना एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रेषित करता है उसे प्रकाशीय तंतू कहते है। 
  • यह पूर्ण आंतरिक परावर्तन के सिद्धांत पर कार्य करता है 
  • इसे आप्टिकल फाइबर भी कहा जाता है। 
प्रकाशिय तंतू के भाग :-

प्रकाशिय तंतू के तीन भाग होते है :-
  1. क्रोड 
  2. क्लैडिंग 
  3. जैकेट 
क्रोड :-

प्रकाशिय तंतु का केन्द्रीय भाग क्रोड कहलाता है यह उच्च कोटि का कांच या क़्वाटज का बना होता है यही प्रकाश स्रोत ले जाने का कार्य करता है। 

क्लैडिंग :-

क्रोड के चारो और सकेन्द्रीय रूप से काँच का आवरण होता है जिसे क्लैडिंग कहते है 
  • चूकी क्लैडिंग का µ क्रोड के µ से कम होता है इसलिए फाइवर के क्रोड भाग मे पूर्ण आंतरिक परावर्तन होता है जिससे प्रकाश क्रोड मे ही सीमित रह जाता है। 
जैकेट :-

फाइवर क्लैडिंग के ऊपर पॉलीयूरीथिन का एक आवरण होता है जो उसे बाहय पदार्थो के रगड़ से बचाता है उसे जैकेट कहते है। 
  • एक से लेकर कई सौ फाइवर मिलकर जैकेट बनाते है। 
प्रकाशिय तंतु के उपयोग :-
  1. डॉक्टरो के द्वारा जाँच मे प्रकाशिय पाइप के रूप मे 
  2. प्रकाशिय संकेतो के प्रेषण मे 
  3. विधुत संकेतो तथा प्रेषण मे 
  4. टेनिस्कोप या विधुत दर्शी मे 
  5. शरीर के अंदर लेसर किरणों को भेजने में 
  6. मनुष्य के शरीर के आंतरिक भागों का परीक्षण करने में प्रकाश सिग्नलो के दूर संचार में 
तारो का टिमटिमाना ( Twinkle of stars ) :-

तारो का टिमटिमाना प्रकाश के अपवर्तन के कारण होता है चूकि तारो से आने वाली प्रकाश की किरणो को वायुमंडल के विभिन्न परतो से होकर गुजरना पड़ता है पृथ्वी से ऊपर जाने पर वायु का घनत्व कम होते जाता है और इस तरह निचे से ऊपर जाने पर माध्यम विरल होते जाता है इस प्रकार तारो से आने वाली प्रकाश की किरणे विरल माध्यम से सघन माध्यम मे प्रवेश करती है और उनका अपवर्तन होता है यही कारण है कि तारे टिमटिमाते नजर आते है। 

सूर्यास्त के समय सूर्य अपनी स्थिति से ऊंचा दिखाई देता है क्यो :-

सूर्यास्त के समय सूर्य अपनी स्थिति से ऊंचा दिखाई देता है क्योकि हम जानते है कि पृथ्वी से ऊपर की ओर जाने पर वायु का घनत्व कम होते जाता है वायु का घनत्व कम होने से अपवर्तनांक भी कम हो जाता है अतः पृथ्वी से ऊपर की ओर बढ़ने पर माध्यम अपेक्षाकृत विरल होते जाता है इस तरह सूर्य से आने वाली प्रकाश की किरणे को वायुमंडल के विभिन्न परतो से होकर गुजरना पड़ता है सूर्य से आने वाली किरणे विरल माध्यम से सघन माध्यम मे जाती है और अभिलंब की ओर मुड़ जाती है इस प्रकार वायु मंडलीय अपवर्तन के कारण सूर्य अपनी वास्तविक स्थिति से ऊंचा दिखाई पड़ता है। 

क्रांतिक कोण ( Critical angle ):-

जब प्रकाश की किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम मे जाता है तो वह आपतन कोण जिसके लिए अपवर्तन कोण का मान 90 डिर्ग्री हो जाता है उसे क्रांतिक कोण कहते है। 
  • इसे C से सूचित किया जाता है 
  • तरंगदैर्ध्य अधिक होने पर क्रांतिक कोण मान भी अधिक होता है 
  • किसी माध्यम का क्रांतिक कोण लाल रंग के अधिकतम तथा बैंगनी रंग के लिए न्यूनतम होगा। 
क्रांतिक कोण निम्नलिखित बातो पर निर्भर करता है :-
  1. प्रकाश के रंग पर 
  2. माध्यम के अपवर्तनांक पर 
  3. प्रकाश के तरंगदैर्ध्य पर 

क्रिस्टल जालक और एकक कोष्ठिका क्या है?

क्रिस्टल जालक ( crystal lattice ) :- 

बिन्दुओ का वह प्रतिरूप जो किसी क्रिस्टल मे उपस्थित अवयवी कणो की त्रिविमीय व्यवस्था को प्रदर्शित करता है उसे क्रिस्टल जालक कहते है। 

  • इसे आकाशीय जालक ( space lattice ) भी कहा जाता है। 

क्रिस्टल जालक की विशेषताएँ :-
  • क्रिस्टल जालक मे अवयवी कण जिस बिंदु या स्थान पर उपस्थित रहते है उसे जालक बिंदु ( lattice point ) या जालक स्थल ( Lattice site ) कहते है 
  • क्रिस्टल जालक का प्रत्येक बिंदु एक अवयवी कणो को प्रदर्शित करता है 
  • दो जालक बिंदुओ को एक सीधी रेखा से मिलाने पर क्रिस्टल जालक की ज्यामितीय आकृति प्राप्त होती है। 
एकक कोष्ठिका ( unit cell ) :-

क्रिस्टल जालक का वह छोटा से छोटा भाग जो बार - बार पुर्नावृति होकर किसी दिए गए ठोस पदार्थ के सम्पूर्ण क्रिस्टल का निर्माण करता है उसे एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे इकाई सेल भी कहा जाता है 
  • यह क्रिस्टल जालक की एक पुर्नावृति इकाई है 
  • इसमे बारह (12) किनारे छः ( 6 ) फलक तथा आठ ( 8 ) कॉंर्नर होते है 
  • एकक कोष्ठिका मे तीन अक्षीय लम्बाई ( a , b , c ) तथा तीन अक्षीय कोण ( α , β , ¥  ) होते है।

     
अक्षीय लम्बाई ( Axial lenght ) :-

किसी एकक कोष्ठिका मे अक्ष के अनुदिश लंम्बत किनारे को अक्षीय लम्बाई कहते है। 
  • अक्षीय लम्बाई ( a , b , c ) होते है 
अक्षीय कोण ( Axial angle ) :-

दो अक्षीय लम्बाई के बीच के कोण को अक्षीय कोण कहते है। 
  • किसी एकक कोष्ठिका मे तीन अक्षीय कोण ( α , β , ¥ ) होते है। 
एकक कोष्ठिका के प्रकार :-

अवयवी कणो की व्यवस्था के आधार पर एकक कोष्ठिका को दो भागो मे बाटा गया है :-
  1. सरल घनीय एकक कोष्ठिका ( simple cubic unit cell )
  2. केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका ( centred cubic unit cell )
सरल घनीय एकक कोष्ठिका :-

वे एकक कोष्ठिका जिसमे अवयवी कण केवल आठो कार्नर पर ही उपस्थित रहते है उसे सरल घनीय एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे SCC से सूचित किया जाता है 
  • इसे आध्य एकक कोष्ठिका ( Primeitive unit cell ) भी कहा जाता है। 
केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका :- 

वे एकक कोष्ठिका जिसमे अवयवी कण कॉर्नर के आलावा अन्य स्थानो पर भी उपस्थित रहते है उसे केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे C.CC से सूचित किया जाता है। 
केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका तीन प्रकार के होते है :-
  1. फलक केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका ( Face centred cubic unit cell )
  2. पिंड केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका ( Body centred cubic unit cell )
  3. अन्त्य केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका ( End centred cubic unit cell )
फलक केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका :-

वे एकक कोष्ठिका जिसमे अवयवी कण कॉर्नर के आलावा सभी फलको के केन्द्र पर उपस्थित रहते है उसे फलक केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे F.CC से सूचित किया जाता है।

     
पिंड केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका :-

वे एकक कोष्ठिका जिसमे अवयवी कण कॉर्नर के अलावा केन्द्र मे उपस्थित रहते है उसे पिंड केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे bcc से सूचित किया जाता है 
  • इसे अंतः केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका भी कहा जाता है 

अन्त्य केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका :-

वे एकक कोष्ठिका जिसमे अवयवी कण कॉर्नर के अलावा दो विपरीत फलको के बीच केन्द्र मे उपस्थित रहते है उसे अन्त्य केन्द्रीय घनीय एकक कोष्ठिका कहते है। 
  • इसे E.CC से सूचित किया जाता है।

     
एकक कोष्ठिका मे उपस्थित परमाणुओ की संख्या :-

सरल घनीय एकक कोष्ठिका ( SC ) मे :-

SC मे केवल आठो कॉर्नर पर ही परमाणु उपस्थित रहते है चूकि कॉर्नर पर के परमाणु आठ एकक कोष्ठिका से साझा करके रहते है। 
  • अतः सरल घनीय एकक कोष्ठिका मे उपस्थित परमाणु की संख्या 1 होती है।
फलक केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका ( F.CC ) मे :-

F.CC मे आठो कॉर्नर के अलावा 6 फलको के केन्द्र पर उपस्थित रहते है चूकि कॉर्नर पर के परमाणु आठ एकक कोष्ठिका से साझा करके रहते है। 
  • अतः फलक केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका मे उपस्थित परमाणुओ की संख्या 4 होती है। 
पिंड केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका ( b.cc ) :-

आठो कॉर्नर के अलावा पिंड के केन्द्र पर उपस्थित रहते है चूकि कॉर्नर पर के परमाणु आठ एकक कोष्ठिका से साझा करके रहते है। 
  • अतः पिंड केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका मे उपस्थित परमाणुओ की संख्या 2 होती है। 
अन्त्य केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका (E.C.C):-

आठो कॉर्नर के आलावा दो विपरीत फलको के केन्द्र में उपस्थित रहते है चूकि कॉर्नर पर के परमाणु आठ एकक कोष्ठिका से साझा करके रहते है तथा फलक के परमाणु दो एकक कोष्ठिका से साझा करके रहते है। 
  • अतः अन्त्य केन्द्रित घनीय एकक कोष्ठिका में उपस्थित कुल परमाणुओ की संख्या 2 होती है। 
उपसहसयोजन संख्या ( co- ordination number ):-

यदि किसी ठोस में उपस्थित कणो को गोला मान लिया जाए तो गोले के सन्निकट गोलो की संख्या को उस गोलो की उपसहसयोजन संख्या कहते है जैसे b.cc की उपसहसयोजन संख्या 8 होती है। 
  • इसे C.N से सूचित किया जाता है 

मोल क्या है मोल की बेसिक जानकारी

 मोल 

मोल शब्द की उत्पति लैटिन शब्द मोल्स ( Moles ) से हुई है जिसका अर्थ हिप ( Heap ) या Piles अर्थात ढ़ेर या समूह होता है 

नामकरण :-

सन 1896 ई० मे आस्टवाल्ट नामक वैज्ञानिक ने मोल शब्द नाम दिया लेकिन 1997 ई० मे इसे पदार्थ की मात्रा का S.I मात्रक के रूप मे मान्यता मिली। 

1 मोल =6.022 *1023  कण ( अणु , परमाणु , आयन )

1 मोल गेहूँ = 6.022 *1023 गेहूँ का दाना 

1 मोल तत्व = 6.022 *1023  परमाणु 

1 मोल यौगिक = 6.022 *1023 अणु 

1 मोल मूलक  = 6.022 *1023  आयन

1 मोल सोडियम = 6.022 *1023  परमाणु 

1 मोल जल = 6.022 *1023  अणु 

उदाहरण :- 

5 मोल सोडियम मे कणों की संख्या ज्ञात करे 

1 मोल सोडियम = 6.022*1023  परमाणु होता है 

5 मोल सोडियम = 5 * 6.022*1023 परमाणु 

                        =30.110*1023  परमाणु 

ऐवोगाड्रो संख्या :-

एवोगाड्रो नामक इटावली वैज्ञानिक ने बताया की एक मोल मे कणो की संख्या निश्चित होती है जिसका मान 6.022 * 1023 होता है इसे ही एवोगाड्रो संख्या कहते है 

मोल का महत्त्व :-

मोल से हमे निम्नलिखित बातों की जानकारी प्राप्त होती है :-

  1. यह पदार्थ के 6.022*1023 कणों का निरूपण करता है। 
  2. किसी तत्व के 1 मोल का द्रव्यमान उसके  6.022*1023 परमाणुओं के कुल द्रव्यमानो के बराबर होता है। 
  3. पदार्थ का एक मोल उस पदार्थ के एक ग्राम - सूत्र द्रव्यमान को व्यक्त करता है।
  4. मानक ताप और दाब पर किसी गैस के एक मोल का आयतन 22.4 L होता है ( मानक ताप =273 K और मानक दाब = पारा का 76 cm दाब )
उदाहरण के लिए , हाइड्रोजन क्लोराइड ( HCl ) का 1 मोल = ( 1 + 35.5 ) g या 36.5 g हाइड्रोजन क्लोराइड।  अतः मोल हाइड्रोजन क्लोराइड के 6.022*1023  अणुओं के कुल द्रव्यमान का निरूपण करता है। 

द्रव्यमान और मोल के बीच संबंध :-

n = m/M 

उदाहरण :-

0.25 मोल कार्बन द्रव्यमान की संख्या बताए 

n = 0.25 

M = 12 

m = n * M 

      = 0.25 * 12 

       = 3g 

द्रव्यमान और कणों की संख्या के बीच संबंध :-

m/M = N/Na 

उदाहरण :-

54g Al मे Al परमाणुओं की संख्या ज्ञात करे 

m = 54g 

M = 27 

Na = 6.022*1023 

m/M = N/Na 

54/27 = N/6.022*1023 

N = 12.044*1023 

कणो की संख्या और मोल के बीच संबंध :- 

n = N/Na  

N = दिए गए पदार्थ की संख्या  

Na = एवोगाड्रो की संख्या 

n = मोलो की संख्या 

मोलो की संख्या और आयतन के बीच संबंध :-

n = V/22.4( L)

आयतन तथा द्रव्यमान के बीच संबंध :-

m/M = V/22.4( L)

कणो की संख्या और आयतन के बीच संबंध :-

N/Na = V/22.4( L)

हेनरी का नियम और रॉवल का नियम क्या है?

 हेनरी का नियम ( Henrys law ) :-

हेनरी नामक वैज्ञानिक ने सन 1802 ईo मे द्रव मे गैसों की विलेयता तथा आरोपित दाब के बीच संबध स्थापित करने के लिए एक नियम का प्रतिपादन किया जिसे हेनरी का नियम कहते है। 

इस नियम के अनुसार :-

स्थिर ताप पर किसी दिए गए द्रव मे गैस की विलेयता आरोपित दाब के समानुपाती होता है अर्थात 

                        [ S ]  ∝ P

                     [ S ] ∝ KH.P 

                     [ S ] = गैस की विलेयता 

                    K = हेनरी नियतांक 

                    P = गैस का आंशिक दाब 

मोल प्रभाज के पदो मे हेनरी का नियम :-

किसी विलयन मे गैस का आंशिक दाब विलयन मे गैस के मोल - प्रभाज के समानुपाती होता है अर्थात ,

                           P ∝ x 

                       p =  KH.x

                    जहाँ p = गैस का आंशिक दाब 

                            K= हेनरी नियतांक 

                            x = गैस का मोल प्रभाज 

हेनरी के नियम से ,

p =  KH.x

K= p/x-----समीकरण (1)

हेनरी नियतांक = गैस का आंशिक दाब/गैस का मोल प्रभाज 

समीकरण (1) से स्पष्ट है कि दिए गए दाब पर KH  का मान अधिक होने पर द्रव मे गैस की विलेयता कम होगी 

  • नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन दोनो के लिए  Kका मान ताप बढने पर बढ़ता है अतः ताप घटाने पर विलेयता बढ़ती है यही कारण है कि जल मे रहने वाले जीव गर्म जल की अपेक्षा ठंडे जल मे अधिक आराम महसूस करते है 
हेनरी के नियम के उपयोग :-
  1. अत्यधिक ऊचाई पर सतही स्थानो की अपेक्षा ऑक्सजीन का आंशिक दाब कम होता है जिससे इन स्थानो पर रहने वाले लोगों एंव आरोहको के खून तथा उतको मे ऑक्सीजन की सान्द्रता कम होने लगती है जिस कारण आरोहक कमजोरी एंव स्पष्ट रूप से सोचने मे कठनाई महसूस करने लगते है इन लक्षणो को एनोक्सिया कहा जाता है। 
  2. गहरे समुन्द्र मे जाने वाले गोताखोर द्वारा इस्तेमाल किए गए यंत्र मे जब ऑक्सीजन का आंशिक दाब कम हो जाता है तो ऑक्सीजन गैस को हिलियम के साथ मिश्रित कर गोताखोर तक पहुँचाया जाता है ताकि उन्हे सॉस लेने मे कठिनाई न हो। 
  3. स्फाट ड्रिक तथा सोडा वाटर मे co2की विलेयता बढ़ाने के लिए बोतल को उच्च दाब पर पैक किया जाता है एवं बोतल को खोलने पर विलयन के ऊपर co2 का आंशिक दाब कम हो जाता है और गैस विलयन से बुलबुले के रूप मे निकलने लगते है। 
हेनरी के नियम की परिसीमाएं :-

यह नियम मुख्यतः आदर्श गैसो के लिए लागू होता है 
  1. ताप और दाब न तो बहुत अधिक हो और न ही बहुत कम हो 
  2. गैस की द्रव मे विलेयता कम हो 
  3. गैस की विलायक के साथ कोई रासायनिक अभिक्रिया नही होती है अतः यह नियम HCl,NH3आदि गैसो के साथ लागू नही होता है क्योकि ये गैसे जल के साथ अभिक्रिया करते है 
  4. गैस विलायक मे घुलकर संयोजन या वियोजन नही करता है।  
रॉवल का नियम ( Raoults law ):-

सन 1881ई0 मे रॉवल नामक वैज्ञानिक ने विलयन के वाष्पदाब मे अवनमय तथा विलेय के सान्द्रण मे सबंध स्थापित करने के लिए एक नियम का प्रतिपादन किया जिसे रॉवल का नियम कहते है 

इस नियम के अनुसार :-

" किसी तनु विलयन के वाष्पदाब का आपेक्षिक अवनमय उसमे उपस्थित विलेय के मोल प्रभाज के बराबर होता है "
यदि किसी विलयन मे विलेय की मोलो की संख्या n1 तथा विलायक के मोलो की संख्या n2 हो तो रॉवल के नियम से ,

Po-Ps/Po  =  xsolute

Po-Ps/P = n1 – n2/ n1

वाष्पदाब :-

साम्यावस्था मे किसी निश्चित ताप पर वाष्प द्वारा द्रव की सतह पर आरोपित दाब को वाष्पदाब कहते है। 
  • इसे VP से सूचित किया जाता है। 
वाष्पदाब का अवनमय :-

जब किसी विलायक मे किसी अवाष्पशील विलेय को मिलाया जाता है तो विलयन का वाष्प दाब शुद्ध विलायक के वाष्प दाब से कम हो जाता है इसे वाष्पदाब का अवनमय कहते है। 
यदि शुद्ध विलायक का वाष्पदाब = Po
विलयन का वाष्पदाब = Ps
वाष्पदाब का अवनमय = Po-Ps

वाष्पदाब का आपेक्षिक अवनमय :-

वाष्पदाब के अवनमय तथा शुद्ध विलायक के वाष्पदाब के अनुपात को वाष्पदाब के आपेक्षिक अवनमय कहते है। 

वाष्पदाब के आपेक्षिक अवनमय = Po-Ps/Po

क्रिस्टल दोष क्या है? दोष कितने प्रकार के होते है?

क्रिस्टल दोष ( crystal defect ) :- 

जब किसी क्रिस्टल मे अवयवी कणो की नियमित व्यवस्था से अवयवी कण का विचलन हो जाता है तो उसे क्रिस्टल दोष कहते है। 

  • इसे क्रिस्टल अपूर्णताएँ भी कहा जाता है 
  • ये दोष ताप पर निर्भर करते है इसलिए इसे उष्मागतिकीय दोष भी कहा जाता है 
  • क्रिस्टलो मे दोष के कारण क्रिस्टल के गुणो तथा यांत्रिक शक्ति मे परिवर्त्तन आ जाते है 
  • कोई भी क्रिस्टल पूर्णतः विशुद्व नही होता है सिर्फ वरम शून्य ताप पर अधिकांश क्रिस्टल दोष रहित हो जाते है 
दोष समान्यतः दो प्रकार के होते है :-
  1. रैखिक दोष ( Liner defect )
  2. बिंदु दोष ( Point defect )
रैखिक दोष ( Liner defect ) :-

जालक बिंदु के सम्पूर्ण कतार मे अवयवी कणो की आदर्श व्यवस्था से विचलन को रैखिक दोष कहते है 
                                                         या 
जब किसी क्रिस्टल के कतार मे अनियमिताए या विचलन हो जाती है तो इस प्रकार उत्पन दोष रैखिक दोष कहा जाता है। 

बिंदु दोष ( Point defect ) :-

जब क्रिस्टल के आदर्श व्यवस्था मे आयन या परमाणु के गायब होने से विचलन या अनियमिताए उत्पन होती है तो इस प्रकार उत्पन दोष को बिंदु दोष कहते है।  

बिंदु दोष तीन प्रकार के होते है :-
  1. स्टॉकियो मेट्रिक दोष 
  2. ननस्टॉकियो मेट्रिक दोष 
  3. अशुद्वता दोष 
स्टॉकियो मेट्रिक दोष :-

वैसा बिंदु दोष जिसमे ठोस की स्टॉकियो मैट्रिक बाधित नही होता है उसे स्टॉकियो मेट्रिक दोष कहते है। 

स्टॉकियो मेट्रिक दोष मुख्यतः दो प्रकार के होते है :-
  1. साँटकी दोष ( Scottky defect )
  2. फ्रेंकेल दोष ( Frenkal defect )
साँटकी दोष ( Scottky defect ) :- 

जब किसी क्रिस्टल से एक धनायन तथा एक ऋणायन अपने निर्धारित स्थान से हटकर क्रिस्टल से गायब हो जाते है तो इन दोनो आयनो के निर्धारित स्थान पर रिक्तियाँ उत्पन हो जाती है इस प्रकार से क्रिस्टल मे उत्पन दोष को साँटकी दोष कहते है। 
  • यह दोष प्रबल आयनिक ठोस या यौगिक मे होता है 
  • यह दोष उस यौगिक मे होता है जिसमे धनायन का आकार ऋणायन के आकार का बराबर होता है 
  • इस दोष मे क्रिस्टल का घनत्व कम हो जाता है 
  • यह दोष वैसे आयनिको यौगिक या ठोसो मे होता है जिसकी उपसहसंयोजन संख्या उच्च होता है


 
फ्रेंकेल दोष ( Frenkal defect ) :-

जब किसी क्रिस्टल से एक धनायन अपने निर्धारित स्थान से निकलकर जालक के किसी अन्तराली स्थान मे फस जाते है तो उस आयन का अपना स्थान रिक्तियाँ उत्पन होता है इस प्रकार उत्पन दोष को फ्रेंकेल दोष कहते है। 
  • इसे विस्थापन दोष भी कहा जाता है 
  • इस दोष के कारण क्रिस्टल के घनत्व अप्रभावित रहता है 
  • यह दोष वैसे क्रिस्टल मे होता है जिसमे धनायन का आकार ऋणायन के आकार से छोटा होता है 
  • इस दोष से युक्त क्रिस्टल विधुत के चालक बन जाते है


 
शॉटकी दोष और फ्रेंकल दोष में अंतर :-

शॉटकी दोष :-
  • यह दोष प्रबल आयनिक ठोस या यौगिक में होता है 
  • इस दोष में क्रिस्टल का घनत्व कम हो जाता है 
  • यह दोष उस यौगिक में होता है जिसमे धनायन का आकार ऋणायन के आकार के बराबर होता है 
  • यह दोष वैसे आयनिक यौगिक या ठोस में होता है जिसकी उपसहसंयोजन संख्या उच्च होती है 
फ्रेंकल दोष :-
  • यह दोष वैसे क्रिस्टल में होता है जिसमे धनायन का आकार ऋणायन के आकार से छोटा होता है 
  • इस दोष के कारण क्रिस्टल के घनत्व अप्रभावित रहता है 
  • इस दोष से युक्त क्रिस्टल विधुत के चालक बन जाते है 
  • इस दोष को विस्थापन दोष कहते है 
ननस्टॉकियो मेट्रिक दोष :-

वैसा दोष जो यौगिक के स्टॉकियो मेट्रिक को असंतुलन कर देता है उसे ननस्टॉकियो मेट्रिक कहते है। 
  • इस दोष मे ननस्टॉकियो मेट्रिक यौगिक मे धनायन की अधिकता होती है या फिर ऋणायन की 
  • इस दोष मे यौगिक की उदासीनता कायम रखने के लिए अतिरिक्त धन आवेश या इलेक्ट्रॉन क्रिस्टल मे व्यवस्थित हो जाते है। 
ननस्टॉकियो मेट्रिक यौगिक :-

वे अकार्बनिक ठोस पदार्थ जिनके अणु मे रासायनिक सूत्र के विपरीत किसी एक तत्व की अधिकता या न्यूनता होती है उसे ननस्टॉकियो मेट्रिक यौगिक कहते है। 
  • ऐसे यौगिक मे धनायनों एंव ऋणायन की संख्या उनके मान्य रासायनिक सूत्र के अनुरुप नही होता है। 
ननस्टॉकियो मेट्रिक दोष दो प्रकार के होते है :-
  1. धातु अधिक्य दोष ( Metal exess defects )
  2. धातु न्यूनता दोष ( Metal deficience defect )
धातु अधिक्य दोष :-

जब किसी क्रिस्टल से एक ऋणायन अपने जालक बिंदु से गायब हो जाता है जिसके कारण उसके स्थान पर छिद्र बन जाता है परन्तु इस छिद्र के स्थान पर एक अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन आकर क्रिस्टल की विधुत उदासीनता कायम कर देता है तो इस तरह क्रिस्टल मे उत्पन दोष को धातु अधिक्य दोष कहते है
                                                                    या 
क्रिस्टल जालक के अंतराली स्थान में एक अतरिक्त धनायन आ जाता है क्रिस्टल की विधुत उदासीनता कायम रखने के लिए एक अतरिक्त इलेक्ट्रॉन भी अंतराली स्थान में प्रवेश कर जाते है इस तरह क्रिस्टल में उत्पनन दोष को भी धातु आधिक्य दोष कहते है। 
  • यह दोष साँटकी दोष की तरह होता है किन्तु साँटकी मे दो छिद्र बनते है जबकि इसमे सिर्फ एक छिद्र बनता है। क्रिस्टल दोष क्या है दोष कितने प्रकार के होते है 
धातु न्यूनता दोष :-

यह दोष भी दो प्रकार से उत्पन होता है इन दोषो मे धातु की परिवर्तन शील संयोजकता की आवश्यकता होती है इसमे क्रिस्टल के जालक बिंदु से एक धनायन गायब हो जाता है लेकिन आवेशो के संतुलन को बनाएं रखने के लिए धातु परमाणु पर दो धनावेश उत्पन हो जाते है इस तरह धातु न्यूनता दोष उत्पन होता है। 
  • इस दोष के लिए धातु परमाणु मे परिवर्ति संयोजकता ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए। 
  • जब क्रिस्टल जालक के अंतराली स्थान में एक अतिरिक्त ऋणायन प्रवेश कर जाता है तो धातु न्यूनता दोष उत्पनन होता है लेकिन आवेशो के संतुलन के लिए निकट वाले धातु आयन पर एक अतिरिक्त धनावेश उत्पनन हो जाता है 
  • ऋणायन का आकार धनायन से बड़ा होता है अतः उनका क्रिस्टल जालक के अंतराली स्थान में प्रवेश करना आसान नही होता है यही कारण है कि धातु अल्पता दोष में यौगिक की संभवनाओ नही के बराबर होती है इस दोष से युक्त क्रिस्टल अर्द्धचालक होते है। 
रिक्तियाँ :-

क्रिस्टल के परमाणुओ को पैकिंग करने में क्रिस्टल के अंदर परमाणुओ के बीच कुछ खाली स्थान रह जाते है जिसे रिक्तियाँ कहते है। 
  • इसे Holes या छिद्र भी कहा जाता है। 
परमाणुओ को दो स्थानो मे सजाने पर दो प्रकार की रिक्तियाँ उत्पनन होती है :-
  1. अष्ट फलकीय रिक्तियाँ 
  2. चतुष्फलकीय रिक्तियाँ 
अष्ट फलकीय रिक्तियाँ :-

छहः परमाणुओ के परस्पर सम्पर्क मे रहने पर जिस रिक्तियाँ का निर्माण होता है उसे अष्ट फलकीय रिक्तियां कहते है। 

चतुष्फलकीय रिक्तियाँ :-

चार परमाणुओ के परस्पर सम्पर्क मे रहने से जिस रिक्तियाँ का निर्माण होता है उसे चतुष्फलकीय रिक्तियाँ कहते है। 
  • इसे अन्तराली भी कहा जाता है 
  • संक्रमण धातुओ के हाइड्रोजन एंव नाइट्रोजन मे अधातुएँ अन्तराली स्थानो मे रहते है। 
Note:-

ठोस पदार्थ के जालक मे परमाणुओ को सजाने पर अष्टफलकीय रिक्तियाँ की संख्या उस जालक के सिमित पैकिंग मे शामिल कणो की संख्या के बराबर होते है तथा चतुष्फलकीय रिक्तियाँ की संख्या अष्टफलकीय रिक्तियाँ की दुगनी होती है। 

प्रकाश क्या है?

प्रकाश ( Light )  

वे विधुत चुंबकीय तरंग जो किसी मानव के दिष्टि पटल पर पड़ कर किसी वस्तु का स्पष्ट प्रतिबिंब बना देता है उसे प्रकाश कहते है। 
                                                                या 
प्रकाश विकिरण ऊर्जा का स्वरूप है जो निर्वात अथवा किसी द्रव्यात्मक माध्यम में संचरण करता है और किसी वस्तु से टकराकर हमारे रेटिना पर पहुँच कर किसी वस्तु को देखने की अनुभूति प्रदान करता है। 
  • यह एक प्रकार की ऊर्जा है जिसके कारण हमे किसी वस्तु को देखने की अनुभूति प्रदान होती है 
  • यह हमेशा सीधी या सरल रेखा मे गमन करती है 
  • निर्वात या वायु मे प्रकाश की चाल अथवा वेग  3*108m/s होता है 
  • प्रकाश के गमन पथ की दिशा को प्रकाश किरण कहते है 
प्रकाश स्रोतों के आधार पर पिंड या वस्तु को दो भागो मे बाटा गया है :-
  1. दीप्त (Luminous) 
  2. अदीप्त ( Non - luminous )
दीप्त ( Luminous ) :-

वे पिंड जो स्वंय प्रकाश को उत्सर्जित करते है उसे दीप्त कहते है जैसे सूर्य , तारे , जुगनू इत्यादि। 

अदीप्त ( Non - luminous ) :-

वे पिंड जो स्वंय प्रकाश उत्सर्जित नही करते है किन्तु प्रकाश को परावर्तित करके स्वंय दिखाई देते है उसे अदीप्त कहते है जैसे चन्द्र्मा , लकड़ी इत्यादि। 

प्रकाश पुंज ( Beam of Light ) :-

प्रकाश के किरणो के समूह को प्रकाश पुंज कहते है 

प्रकाश पुंज तीन प्रकार के होते है :-
  1. समांतर किरणपुंज ( Paralled beam of Light )
  2. अभिसारी किरणपुंज ( Convergent beam of Light )
  3. अपसारी किरणपुंज ( Divergent beam of Light )
समांतर किरणपुंज :-

वे किरणपुंज जिनकी सभी किरणे एक दूसरे के समांतर होते है उसे समांतर किरणपुंज कहते है

अभिसारी किरणपुंज :-

वे किरणपुंज जिनकी सभी किरणे एक बिंदु पर आकर मिलती है उसे अभिसारी किरणपुंज कहते है। 
  • इसे अभिसृत या संस्तृत किरणपुंज कहते है। 
अपसारी किरणपुंज :-

वे किरणपुंज जिनकी सभी किरणे एक बिंदु से निकलकर विभिन्न दिशाओ मे फेल जाती है उसे अपसारी किरणपुंज कहते है। 
  • इसे अपसृत किरणपुंज भी कहा जाता है। 
प्रकृति के आधार पर प्रकाशीय माध्यम को दो भागो मे बाटा गया है :-
  1. समांगी माध्यम ( Homogenous Medium )
  2. विषमांगी माध्यम ( Heterogenous Medium )
समांगी माध्यम :-

वे प्रकाशीय माध्यम जिसके प्रत्येक भाग के गुण एंव बनावट समान होते है उसे समांगी माध्यम कहते है जैसे जल , काँच इत्यादि। 

विषमांगी माध्यम :-

वे प्रकाशीय माध्यम जिसके प्रत्येक भाग के गुण एंव बनावट असमान होते है उसे विषमांगी कहते है जैसे हवा तथा केलसाईट इत्यादि। 

प्रकाश के गमन के आधार पर पदार्थ को तीन भोगो मे बाटा गया है :-
  1. पारदर्शी ( Transparent )
  2. पारभासी ( Translucent )
  3. अपारदर्शी ( Translucent )
पारदर्शी :-

वे पदार्थ जिनसे होकर प्रकाश के किरणे पूर्णतः आसानी से आर - पार कर सकते है उसे पारदर्शी कहते है जैसे मे हवा , पानी, काँच इत्यादि। 

पारभासी :-

वे पदार्थ जिनसे होकर प्रकाश की किरणे आंशिक रूप से आर - पार करते है उसे पारभासी कहते है जैसे मे तेल लगा कागज , घिसा हुआ काँच , सूती कपड़ा इत्यादि। 

अपारदर्शी :-

वे पदार्थ जिनसे होकर प्रकाश की किरणे बिलकुल ही नही आर - पार करते है उसे अपारदर्शी कहते है जैसे मे मिट्टी , पत्थर , ईट,लकड़ी इत्यादि। 



पदार्थ क्या है? पदार्थ की कितनी अवस्थाएँ है?

 पदार्थ ( Matter )

ब्रह्मांड का वह भाग जिसमे कुछ द्रव्यमान हो जो स्थान घेरता हो तथा जो रुकावट डाल सके उसे पदार्थ कहते है। जैसे लकड़ी , जल, मिट्टी 

पदार्थ की मुख्यत तीन अवस्थाएँ है लेकिन चौथी एंव पाँचवी की भी खोज हो चुकी है :- 

  1. ठोस अवस्था ( Solid State )
  2. द्रव अवस्था ( Liquid State )
  3. गैसीय अवस्था ( Gaseous State )
  4. प्लाज्मा अवस्था ( Plasma State )
  5. बोस आइन्स्टाइन कंडसेट ( Boss Enstein Condenset )
ठोस अवस्था ( Solid State ) :-

पदार्थ की वैसी अवस्था जिसका आकार एंव आयतन दोनों निश्चित होता है तथा जिसके अवयवी कण निश्चित क्रम मे व्यवस्थित रहते है उसे ठोस अवस्था कहते है। जैसे Nacl , गैस इत्यादि 

ठोस के निम्नलिखित विशेषताए है :-
  • इसका आकार एंव आयतन दोनो निश्चित होते है 
  • इसके अणुओं के बीच अन्तराणविक आकर्षण बल प्रबल होता है 
  • इसके अणुओ के बीच अन्तराणविक दूरी नगण होती है 
  • इसका घनत्व उच्च होता है 
  • इसका गलनांक उच्च होता है 
  • इसमे बहने की प्रवति नही होती है आर्थात ये तरल नही होते है 
  • ये प्राय कठोर होते है 
समदेसिकता ( Isotrophy ) :-

वे ठोस जिसमे उष्मीय चालकता , विधुत चालकता , यांत्रिक प्रबलता तथा अपवर्तनांक जैसे भौतिक गुण सभी दिशाओ मे समान होते है उसे समदेसिक कहते है तथा इस गुण को समदेसिकता कहा जाता है। 

विषम देसिकता ( Anisotropy ) :-

वे ठोस जिसमे उष्मीय चालकता , विधुत चालकता , यांत्रिक प्रबलता तथा अपवर्तनांक जैसे भौतिक गुण सभी दिशाओ मे समान नही होते है उसे विषम देसिकता कहते है। 

ठोस के अवयवी कण ( Component of Solid ) :-

ठोस पदार्थ जिन कणो से मिलकर बने होते है उसे अवयवी कण कहते है 
  • इसे घटक भी कहा जाता है 
  • ठोस के अवयवी कण प्राय अणु , परमाणु तथा आयन होते है 
ठोस के प्रकार ( Type of Solid ) :-

अवयवी कणो की व्यवस्था के आधार पर ठोस को दो भागो मे बाटा गया है 
  1. क्रिस्टलीय ठोस ( Crystalline Solid )
  2. अक्रिस्टलीय ठोस ( Amorphous Solid )
क्रिस्टलीय ठोस ( Crystalline Solid ) :-

वे ठोस जिसमे अवयवी कण नियमित क्रम मे व्यवस्थित होते है तथा बार-बार पुणावृति कर एक निश्चित पैटर्न बनाते है उसे क्रिस्टलीय ठोस कहते है। 
  • इसे वास्तविक ठोस ( Real Solid ) कहा जाता है 
  • इसे दीर्घ परासी व्यवस्ता ( Long rang order ) होता है 
  • ये विषम देशिक होते है 
  • इसमे स्पष्ट विदलन होता है 
  • इसका गलनांक निश्चित होता है 
  • इसका घनत्व उच्च होता है जैसे धातु , हीरा , ग्रेफाइट इत्यादि। 
अक्रिस्टलीय ठोस ( Amorphous Solid ) :-

वे ठोस जिसमे अवयवी कण नियमित क्रम मे व्यवस्थित नही होते है तथा बार-बार पूणावृति कर एक निश्चित पैटर्न नही बनाते है उसे अक्रिस्टलीय ठोस कहते है 
  • इसे छदम ठोस ( Pseudo Solid ) कहा जाता है 
  • इसमे लघु परासी व्यवस्था होता है 
  • ये समदेशिक होते है 
  • इसमे स्पष्ट विदलन नही होता है 
  • इसका गलनांक निश्चित नही होता है 
  • इसका गलन ऊष्मा निश्चित नही होता है 
  • इसका घनत्व उच्च नही होता है 
  • जैसे रबर , कांच , प्लास्टिक इत्यादि। 
क्रिस्टलीय ठोस के प्रकार ( types of Crystaline Solid ) :-

अवयवों कणो की प्रकृति तथा उनके बीच आबंध कि प्रकृति के आधार पर क्रिस्टलीय ठोस को चार भागो मे बाटा गया है :-
  1. आयनिक ठोस 
  2. सहसंयोजक ठोस 
  3. धात्विक ठोस 
  4. आण्विक ठोस  
आयनिक ठोस :-

वे क्रिस्टलीय ठोस जिसमे अवयवी कण आयन ( धनायन तथा ऋणायन ) होते है तथा वे परस्पर स्थिर विधुत आकर्षण बल द्वारा जुड़े होते है उसे आयनिक ठोस कहते है। 

आयनिक ठोस की विशेषताएँ :-

  • ये धनायन तथा ऋणायन के गुछे के रूप मे रहते है जो विधुत : उदासीन होते है 
  • ये कठोर एंव भंगूर होते है 
  • इनके अवयवों कणो के बीच आयनिक बंधन या कुलाम्बिक बल होता है 
  • इसका द्रव्यनांक तथा कवथनांक काफी उच्च होता है 
  • ये ठोस अवस्था मे विधुत के कुचालक जबकि द्रवित या विलयन के अवस्था मे विधुत के सुचालक होते है 
  • ये जल तथा अन्य ध्रुवीय विलायक मे घुलनशील होते है जबकि अध्रुवीय विलायक जैसे एसीटो तथा बेंजीन मे अघुलनशील होते है 
सहसंयोजक ठोस :-

वे क्रिस्टलीय ठोस जिसमे अवयवी कण परमाणु के रूप मे होते है तथा ये परस्पर सहसंयोजन बंधन द्वारा जुड़े होते है उसे सहसंयोजन ठोस कहते है। 

सहसंयोजक ठोस की विशेषताएँ :-
  • ये कठोर होते है 
  • इसका द्रव्यनांक तथा कवथनांक काफी उच्च होता है 
  • इसे नेटवर्क ठोस भी कहा जाता है 
  • ये प्राय: त्रिविमीय संरचना का निर्माण करता है 
  • इसके अपवर्तनांक अति उच्च होते है 
  • ये उच्च कंपनावृति वाले प्रकाश को अवशोषित कर लेते है 
  • ये ग्रेफाइट को छोड़कर विधुत के कुचालक होते है 
धात्विक ठोस :-

वे क्रिस्टलीय ठोस जिसमे अवयवी कण धात्विक परमाणु होते है तथा जो परस्पर धातुई बंधन द्वारा जुड़े होते है उसे धात्विक ठोस कहते है। 

धात्विक ठोस की विशेषताएँ :-
  • ये प्राय: कठोर होते है 
  • इसका द्रव्यनांक तथा कवथनांक अति उच्च होता है 
  • इसका घनत्व अति उच्च होता है 
  • इसमे विशेष प्रकार की चमक होती है 
  • ये विधुत के सुचालक होते है 
आण्विक ठोस :-

वे क्रिस्टलीय ठोस जिसमे अवयवी कण अणु के रूप मे होते है तथा जो परस्पर वांडर बल या द्विध्रुव आकर्षण या हाइड्रोजन बंधन द्वारा जुड़े होते है उसे आण्विक ठोस कहते है। 

आण्विक ठोस की विशेषताएँ :-
  • ये कठोर एंव मुलायम होते है 
  • इसका द्रव्यनांक तथा कवथनांक निम्न होते है 
  • इसका घनत्व निम्न होते है 
  • ये विधुत के कुचालक होते है 
  • ये परस्पर दुर्बल वांडर वाल बल द्वारा जुड़े होते है