न्यूटन का कणिका सिद्धांत क्या है?

न्यूटन का कणिका सिद्धांत 



सन 1675 ईo में न्यूटन नामक वैज्ञानिक ने प्रकाश के कणिका - सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे न्यूटन का कणिका - सिद्धांत कहते है इस सिद्धांत के अनुसार,  

  1. प्रत्येक प्रकाश स्रोत अनगिनत संख्या में अत्यंत सूक्ष्म हल्के एवं अदृश्य कणों को उत्सर्जित करते रहते है इन कणों को कणिकाएँ कहा जाता है। 
  2. ये कणिकाएँ निर्वात में प्रकाश के वेग के समान वेग से सरल रेखा में गति करते है तथा अपने साथ ऊर्जा भी ले जाते है जब ये कणिकाएँ हमारे रेटिना पर पड़ती है तब कोई वस्तु हमे दिखाई देती है। 
  3. भिन्न - भिन्न रंगो का प्रकाश कणिकाएँ के भिन्न - भिन्न आकार के कारण होता है। 
  4. जब ये कणिकाएँ किसी अन्य माध्यम के निकट पहुँचती है तो उन पर आकर्षण या प्रतिकर्षण का बल लगता है इसी बल के कारण माध्यम बदलने पर प्रकाश की चाल बदल जाती है। 
न्यूटन का कणिका सिद्धांत प्रकाश के निम्न तथ्यों की व्याख्या करता है :-
  1. प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा है। 
  2. प्रकाश सीधी या सरल रेखा में गमन करती है। 
  3. प्रकाश का परावर्तन होता है। 
  4. प्रकाश का अपवर्तन होता है। 
कणिका सिद्धांत के अमान्यताओ के निम्नलिखित कारण है :-
  1. इस सिद्धांत के अनुसार प्रकाश का वेग ताप पर निर्भर होना चाहिए लेकिन प्रयोग द्वारा प्रदर्शित किया गया है कि प्रकाश का वेग प्रकाश स्रोत के ताप पर निर्भर नहीं करता है। 
  2. कणिका सिद्धांत के अनुसार प्रकाश का वेग विरल माध्यम के अपेक्षा सघन माध्यम में अधिक होना चाहिए लेकिन फोको ने अपने प्रयोग द्वारा बताया की प्रकाश का वेग सघन माध्यम की अपेक्षा विरल माध्यम में अधिक होती है। 
  3. यदि प्रकाश स्रोत से निरंतर कणिकाएँ निकलती रहती है तो प्रकाश स्रोत का द्रव्यमान समय साथ - साथ कम होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होता है। 
  4. न्यूटन के कणिका सिद्धांत के अनुसार जब कणिकाएँ किसी अन्य माध्यम के निकट पहुँचती है तो प्रतिकर्षण बल लगता है लेकिन प्रयोग द्वारा बताया की आकर्षण बल कार्य करता है। 
  5. कणिका सिद्धांत प्रकाश के विवर्तन , व्यतिकरण , ध्रुवण आदि घटनाओं की व्याख्या नही कर सका। 

जैव शक्ति का सिद्धांत क्या है?

जैव शक्ति का सिद्धांत  



कार्बनिक यौगिक के निर्माण के सद्रर्भ में बर्जीलियस नामक वैज्ञानिक ने एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे जैव शक्ति का सिद्धांत कहते है इस सिद्धांत के अनुसार सजीवों में एक अद्भूत शक्ति होती है जिसके कारण जीवो के शरीर में कार्बनिक यौगिक का निर्माण होता है लेकिन इसे प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता है।  

जैव शक्ति के सिद्धांत का अंत :-

सन 1828 ईo में बर्जीलियस का शीर्ष फ्रेटिक वोलर ने प्रयोगशाला में अमोनियम सल्फेट तथा पौटेशियम साइनेट को प्रयोगशाला में गर्म करके अमोनियम साइनेट बनाया अब अमोनियम साइनेट को गर्म करने पर यूरिया का निर्माण हुआ अतः यूरिया प्रयोगशाला में बनाया जाने वाला प्रथम कार्बनिक यौगिक है। 

विलोम शब्द

 विलोम शब्द 



अनुराग का विलोम है 

  1. राग 
  2. विराग 
  3. वैराग्य 
  4. प्रेम 
कृष्ण का विलोम है 
  1. काला 
  2. सफेद 
  3. उजला 
  4. शुक्ल 
संध्या का विलोम है 
  1. प्रात 
  2. प्रातः 
  3. निशा 
  4. रात्रि 
सजीव का विलोम है 
  1. निर्जीव 
  2. मरण 
  3. जीवन 
  4. अजीव 
नया का विलोम है 
  1. पुराना 
  2. प्राचीन 
  3. फटा 
  4. गंदा 
जन्म का विलोम है 
  1. मृत्यु 
  2. मौत 
  3. मरण 
  4. विदा 
अस्त का विलोम है 
  1. उदय 
  2. परस्त 
  3. आगमन 
  4. सुस्त 
सृष्टि का विलोम है 
  1. धरती 
  2. प्रलय 
  3. मिटाना 
  4. इनमें कोई नहीं 
मुख्य का विलोम है 
  1. आवश्यक 
  2. जरूरी 
  3. अनिवार्य 
  4. गौण 
पुरस्कार का विलोम है 
  1. दण्ड 
  2. सम्मान 
  3. अपमान 
  4. इनमें कोई नहीं 
जड़ का विलोम है 
  1. नीचे 
  2. चेतन/तना 
  3. धरती के अंदर 
  4. इनमें कोई नहीं 
प्रवृति का विलोम है 
  1. निवृति 
  2. आकर्षित 
  3. आकर्षण 
  4. कोई नहीं 
लुप्त का विलोम है 
  1. लिपा जाना 
  2. विला जाना 
  3. व्यक्त 
  4. गुप्त रखना 
लघु का विलोम है 
  1. लाघव 
  2. छोटा 
  3. गुरु 
  4. कोई नहीं 
रिक्त का विलोम है 
  1. खाली 
  2. पूर्ण 
  3. खाली जगह 
  4. कोई नहीं 
अन्त का विलोम है 
  1. आदि 
  2. आरंभ 
  3. समाप्त 
  4. कोई नहीं 
कनिष्ठ का विलोम है 
  1. अनिष्ठ 
  2. छोटा 
  3. ज्येष्ठ 
  4. बराबर 
सम्पत्ति का विलोम है 
  1. सम्पदा 
  2. विपत्ति 
  3. गरीबी 
  4. दरिद्रता 
ग्रहण का विलोम है 
  1. हाथ से छोड़ना 
  2. हाथ में लेना 
  3. त्याग 
  4. कोई नहीं 
प्राचीन का विलोम है 
  1. चीन 
  2. अर्वाचीन 
  3. पुराना 
  4. धुराना 
जीवन का विलोम है 
  1. लाश 
  2. मृत्यु 
  3. मृत 
  4. मरण 
आशा का विलोम है 
  1. हताशा 
  2. निराशा 
  3. उम्मीद 
  4. कोई नहीं 
परिश्रम का विलोम है 
  1. मेहनत 
  2. तेजस्वी 
  3. विश्राम 
  4. कोई नहीं 
दक्षिण का विलोम है 
  1. पूरब 
  2. वाम 
  3. उत्तर 
  4. पश्चिम 
तम का विलोम है 
  1. अंधकार 
  2. अँधेरा 
  3. तुम्हारा 
  4. ज्योति 
उन्नति का विलोम है 
  1. प्रगति 
  2. चाल 
  3. अवनति 
  4. ऊपर 
गणतंत्र का विलोम है 
  1. राजतंत्र 
  2. परतंत्र 
  3. स्वतंत्र 
  4. कोई नहीं 
खण्डन का विलोम है 
  1. टुकड़े करना 
  2. तोड़ना 
  3. मण्डन 
  4. कोई नहीं 
जटिल का विलोम है 
  1. उलझा हुआ 
  2. सरल 
  3. सुलझा हुआ 
  4. गुँधा हुआ 
ज्येष्ठ का विलोम है 
  1. बड़ा भाई 
  2. बड़े चाचा 
  3. कनिष्ठ 
  4. कोई नहीं 
अधिकतम का विलोम है 
  1. न्यूनतम 
  2. कम करना 
  3. बहुत करना 
  4. ज्यादा करना 
अल्पायु का विलोम है 
  1. छोटा 
  2. बड़ा 
  3. दीर्घायु 
  4. कोई नहीं 
तिमिर का विलोम है 
  1. प्रकाश 
  2. अँधेरा 
  3. अंधकार 
  4. अन्हार 
आदान का विलोम है 
  1. प्रदान 
  2. कद्रदान 
  3. अज्ञान 
  4. कोई नहीं 
नूतन का विलोम है 
  1. पुरातन 
  2. नया 
  3. बिल्कुल नया 
  4. ताजा 
आस्तिक का विलोम है 
  1. आशावान 
  2. नास्तिक 
  3. कट्टर 
  4. कोई नहीं 
वृद्धि का विलोम है 
  1. जनसंख्या बढ़ना 
  2. बूढ़ा 
  3. ह्रास 
  4. उत्पादन बढ़ना 
ऋण का विलोम है 
  1. ऋण ही ऋण 
  2. ऋणी 
  3. उऋण 
  4. कोई नहीं 
कृपा का विलोम है 
  1. कोप 
  2. दया 
  3. आशीर्वाद 
  4. करुण 
करुण का विलोम है 
  1. दया 
  2. निष्ठुर 
  3. क्षमा 
  4. कृपा 
अनादर का विलोम है 
  1. मान 
  2. सम्मान 
  3. आदर 
  4. कोई नहीं 
पाश्चात्य का विलोम है 
  1. पश्चिम 
  2. पौरस्त्य 
  3. पच्छिम 
  4. कोई नहीं 
निंध का विलोम है 
  1. निन्दा करने योग्य 
  2. वन्ध 
  3. प्रशंसा करने योग्य 
  4. आलोचना 
शिकस्त का विलोम है 
  1. फतह 
  2. हार 
  3. पिछरना 
  4. कोई नहीं 
बाढ़ का विलोम है 
  1. प्रलय 
  2. अकाल 
  3. सूखा 
  4. आँधी 

SONG OF MYSELF

 Walt Whitman

WALT WHITMAN ( 1819 - 1892 ) the people's poet is perhaps the most individualistic literary figure that America has ever produced he began working as a carpenter before his twelfth birthday he also worked as a printer teacher and editor and was volunteer nurse during the Civil War Whitman poetry all of which is collected in Leaves of Grass is known for its free rhythms and lack of rhyme Whitman first published it at his own expense in 1855 However the free form of the poems and the joyful dedications to the importance of the individual were not well received at first in fact his collection of poem cost Whitman his job as it was taken to be obscene in 1881 after many editions Leaves of Grass finally found a publisher willing to print it uncensored Translations of this collection were enthusiastically received in Europe but Whitman remained relatively unappreciated in America it was only after his death that he could win appreciation in America for his original and innovative expression of American individualism His important works include Leaves of Grass ( 1855 ) and Drum Taps ( 1866 ).

SONG OF MYSELF

I celebrate myself , and sing myself,

and what I assume you shall assume,

for every atom belonging to me as good belongs to you.

I loafe and invite my soul,

I lean and loafe at my ease observing a spear of summer grass my tongue, every atom of my blood form'd from this soil, this air,

Born here of parents, born here from parents the same and their parents the same,

I now thiry seven years old in perfect health begin,

Hoping to cease not till death,

Creeds and schools in abeyance,

Retiring back a while sufficed at what they are but never forgotten,

I harbour for good or bad , I permit to speak at every hazard,

Nature without check with original energy.



तत्त्व और यौगिक में मुख्य अंतर क्या है ?

तत्त्व 

तत्त्व पदार्थ का एक शुद्ध और सरलतम द्रव्य है जो किसी भी भौतिक या रासायनिक विधि द्वारा दो या दो से अधिक सरल द्रव्यों में विभाजित नहीं किया जा सकता है उसे तत्त्व कहते है जैसे हाइड्रोजन , ऑक्सीजन , ताँबा , चाँदी , सोना , सल्फर इत्यादि। 

तत्त्व की विशेषता :-

  1. यह एक ही प्रकार के परमाणुओं से बना होता है। 
  2. अन्य तत्त्वों के गुणों से भिन्न किसी तत्त्व के कुछ विशिष्ट गुण होते है जैसे हाइड्रोजन एक तत्त्व है क्योंकि यह किसी भी भौतिक या रासायनिक विधि द्वारा दो या दो से अधिक सरल द्रव्यों में विभाजित नहीं किया जा सकता है यह सिर्फ हाइड्रोजन परमाणुओं का ही बना होता है जिनकी परमाणु संख्या 1 होती है। 
तत्त्व के प्रकार :-

तत्त्व मुख्यतः दो प्रकार के होते है :-
  1. धातु 
  2. अधातु 
धातु के गुण :-
  1. इसमें विशेष प्रकार की चमक होती है जिसे धातुई चमक कहते है। 
  2. ये ऊष्मा एवं विधुत की सुचालक होती है। 
  3. ठोस अवस्था में ये आघातवर्धनीय और तन्य होती है। 
  4. अधिकांश धातुएँ कमरे के ताप पर ठोस होती है पारा एक अपवाद है जो कमरे के ताप पर द्रव के रूप में पाया जाता है। 
अधातु के गुण :-
  1. इसमें प्रायः कोई विशेष चमक नहीं होती है आयोडीन एक अपवाद है जो चमकीला होता है। 
  2. ये ऊष्मा और विधुत की कुचालक होती है। 
  3. ये प्रायः गैस के रूप में पाई जाती है किन्तु कुछ अधातुएँ जो ठोस - रूप में पाई जाती है वे मुलायम और भंगूर होती है ब्रोमीन ही एक ऐसी अधातु है जो द्रव रूप में पाई जाती है। 
यौगिक :-

यौगिक वह शुद्ध पदार्थ है जो दो या दो से अधिक तत्त्वों के भार के विचार से एक निश्चित अनुपात में रासायनिक संयोग के फलस्वरूप बनता है उसे यौगिक कहते है। 
  • यौगिक को किसी रासायनिक क्रिया द्वारा विघटित करके दो या दो से अधिक सरल तत्त्व प्राप्त किए जा सकते है। 
  • यौगिक के बनने में उसके अवयवी तत्त्वों के अपने गुण गायब हो जाते है उदाहरण के लिए , लौह चूर्ण और गंधक के चूर्ण को भार के विचार से 7 : 4 के अनुपात में मिश्रित कर गर्म करने से भूरे - काले रंग का फेरस सल्फाइड बनता है इस फेरस सल्फाइड में लोहा और गंधक के अपने - अपने गुण नहीं पाए जाते है अतः फेरस सल्फाइड लोहा और गंधक के रासायनिक संयोग से बना एक यौगिक है।  
यौगिक के प्रमुख गुण :-
  1. यौगिक के अवयवी तत्त्वों को किसी भी यांत्रिक या भौतिक विधि द्वारा अलग - अलग नहीं किया जा सकता है। 
  2. किसी यौगिक के गुण उसके अवयवी तत्त्वों के गुणों से बिलकुल भिन्न होते है। 
  3. किसी यौगिक के बनने में ऊष्मा या प्रकाश के रूप में ऊर्जा का प्रायः उत्सर्जन का अवशोषण होता है। 
  4. यौगिक में उसके अवयवी तत्त्व भार के विचार से एक निश्चित अनुपात में रहते है। 
  5. यौगिक के द्रवणांक और कवथनांक निश्चित होते है। 
  6. यौगिक एक समांग पदार्थ है अर्थात यौगिक के संघटन और गुण सर्वदा एकसमान रहते है। 
तत्त्व और यौगिक में अंतर :-

तत्त्व :-
  • तत्त्व वह पदार्थ है जिसे दो या दो से अधिक विभिन्न पदार्थों में विभाजित नहीं किया जा सकता है। 
  • तत्त्व एक ही प्रकार के परमाणुओं का बना होता है। 
  • तत्त्व सिर्फ एक ही पदार्थ का बना होता है 
  • तत्त्वों के भौतिक और रासायनिक गुण यौगिकों से भिन्न होते है। 
  • तत्त्व का सूक्ष्मतम कण परमाणु कहलाता है। 
यौगिक :-
  • यौगिक को रासायनिक विधियों द्वारा दो या दो से अधिक विभिन्न गुण वाले पदार्थो में विभक्त किया जा सकता है। 
  • यौगिक विभिन्न प्रकार के परमाणुओं का बना होता है। 
  • यौगिक दो या दो से अधिक विभिन्न पदार्थो से बना होता है। 
  • यौगिक के भौतिक और रासायनिक गुण तत्त्वों से भिन्न होते है। 
  • यौगिक का सूक्ष्मतम कण अणु कहलाता है। 

वनों का संरक्षण क्यों आवश्यक है ?

वनों का संरक्षण 

वन हमें विभिन्न उत्पाद प्रदान करते है फिर ये नवीकरण योग्य संसाधन है अतः इनके संरक्षण की ओर ध्यान देना अत्यावश्यक है। 

वनों के संरक्षण के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते है :-

  1. जिन क्षेत्रों से निकट या अतीत में वृक्ष काट डाले गए वहाँ पुनः वृक्षारोपण किया जाए वृक्षारोपण से न केवल वन संपदा की वृद्धि होगी बल्कि मिट्टी का कटाव कम होगा अपवाह घटेगा और भूमिजल की आपूर्ति में भी वृद्धि होगी। 
  2. वनों से केवल सूखा वृक्ष ही काटे जाए अर्थात जिन वृक्षो का विकास अब और अधिक न होनेवाला है उन्हें ही काटकर निकाला जाए इससे विकासशील वृक्षो को बढ़ने का सुअवसर मिलेगा। 
  3. वन क्षेत्र में कटाई के लिए फसल - चक्र पद्धति अपनाई जाए तो क्रम से वन विकसित होगा और नियमित लाभ होता रहेगा। 
  4. वन क्षेत्र का विस्तार किया जाए अर्थात नए वन लगाए जाए। 
  5. वनों की देखभाल ठीक से की जाए ताकि हमारी असावधानी से वहाँ आग न लगे आग की रोकथाम के लिए अगनिरक्षा पथ और अगनिरोधक पथ की व्यवस्था की जाए इससे आग के प्रसार को रोकने में सहायता मिलेगी वनों के बीच स्थान - स्थान पर निरीक्षण मीनार बनाए जाए आग बुझाने के लिए अग्निशामकों की भी व्यवस्था रहे। 
  6. वन के संरक्षण के लिए एक निश्चित नीति हो। भारत सरकार ने वनों को सुरक्षित और संरक्षित तक घोषित किया है सुरक्षित वन बाढ़ की रोकथाम , भूमि कटाव से बचाव और मरुस्थलों के प्रसार को रोकने की दृष्टि से बड़े महत्त्व के है संरक्षित वनों में सरकार की ओर से लाइसेंस प्राप्त लोग ही लकड़ी काट सकते है हमारी वन - नीति के अनुसार समस्त क्षेत्र के 33 % पर वनों का विस्तार होना चाहिए और यह प्रतिशत पहाड़ी प्रांतों में 60 % तथा मैदानी प्रदेशों में 20 % होना चाहिए। 
  7. वृक्षो में लगनेवाली दीमक तथा अन्य कीटाणुओं और बीमारियों से बचाव के लिए वायुयान द्वारा दवा का छिड़काव होना चाहिए। 
  8. सामाजिक वानिकी प्रोत्साहित की जाए ( परती जमीन पर जल्द उगनेवाला उपयोगी पेड़ लगाना , जिससे फल , काष्ठ , ईधन आदि की समस्या हल हो तथा पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने की योजना को मदद मिले सामाजिक वानिकी कहलाती है। )

जलाभाव के मुख्य कारण क्या है और इसके उपाय को लिखें।

जलाभाव 

स्वेडन के जल संसाधन विशेषज्ञ फॉल्कन मार्क के अनुसार यदि प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 1000 घन मीटर की दर से भी उपलब्ध न हो तो इसे जलाभाव कहते है जल एक कीमती और दुर्लभ संसाधन है अतः इसका उपयोग सुनियोजित ढंग से किए जाने की आवश्यकता है किसी वर्ष यह बहुत अधिक उपलब्ध होता है तो कभी दुर्लभ भी हो जाता है देश के शुष्क प्रदेशों में जल बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है बाढ़ की स्थिति में जल की विनाशकारी लीला देखी जाती है साथ ही सुखाड़ की स्थिति में भी। उपलब्ध जल के उपयोग की योजना बनाना नितांत आवश्यक है। 

सिंचाई के लिए जल का उपयोग बढ़ता जा रहा है कल - कारखाने वाले उद्योगों के विकास और हमारी जनसंख्या में तेजी से वृद्धि के कारण भी हमें जल की अधिक आवश्यकता है आज जनसंख्या के एक बड़े भाग के लिए शुद्ध पेयजल का प्रबंध करना अत्यावश्यक है यह दुर्भाग्य है की नदियों का देश भारत स्वच्छ पेयजल के अभाव से ग्रसित है नदियों और जलाशयों का जल प्रदूषित होता जा रहा है उनमें कचरे भरते जा रहे है जिससे उनका जल अशुद्ध होता जा रहा है अशुद्ध जल अनेक बीमारियों को जन्म देता है शुद्ध जल के भंडारण और संरक्षण की व्यवस्था न की जा सकी तो जीना दुर्लभ हो जाएगा कृषि - प्रधान देश होने के कारण हमें सिंचाई की सुविधा जुटानी है उद्योगों को विकसित करने के लिए कल - कारखाने को भी पानी देना है और मानव संसाधन को भी जल की आपूर्ति करनी है जल की आवश्यकता सभी जीव - जंतुओं को है अतः जल संसाधन का संरक्षण विभिन्न स्तरों पर होना चाहिए। 

जलाभाव के मुख्य कारण :-

  1. देश के कई भागों में अपर्याप्त वर्षा होना 
  2. जनसंख्या - वृद्धि से जल की माँग बढ़ना 
  3. नकदी फसलों की खेती में जल की अधिक खपत 
  4. बढ़ते जीवन - स्तर के परिणामस्वरूप जल की खपत बढ़ना 
  5. नलकूपों से अधिक जल निकासी के फलस्वरूप भूमिगत जल में कमी 
जल संरक्षण के उपाय :-
  1. जल संचय के लिए अधिक से अधिक जलाशयों का निर्माण 
  2. एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल के स्थानांतरण की सुविधा 
  3. भूमिगत जलस्तर उठाने के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करना जैसे - खेत के चारों ओर नालियाँ बनाना , छोटी - छोटी नदियों में बाँध बनाना। 
  4. जलसंभर का विकास अर्थात सहायक नदियों की बेसिन में उपलब्ध जल का स्थानीय और समन्वित उपयोग एवं छोटे - छोटे क्षेत्रों का समुचित विकास किया जाए इसमें स्थानीय लोगों को भागीदार बनाकर वृक्षारोपण , मिट्टीसुधार , कृषि का विकास , चरागाह का विकास और जल संग्रहण कार्यक्रम अपनाएँ जाए भूमिगत जलस्तर उठाने के लिए वर्षा - जल को व्यर्थ बहने से रोककर उसका समुचित संग्रह किया जाए। 

संसाधनों के उपयोग के संदर्भ में किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रयास

संसाधनों के उपयोग के संदर्भ में किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रयास 

 क्लब ऑव रोम ( 1968 ) :-

क्लब ऑव रोम ने 1968 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग का प्रस्ताव रखा। 

विश्व शिखर सम्मेलन ( 1972 ) :-

स्टॉकहोम में पर्यावरण संरक्षण के निमित्त पहला विश्व शिखर सम्मेलन जून 1972 में आयोजित किया गया था इसमें उपस्थित सदस्यों ने समवेत स्वर से पर्यावरण संरक्षण करने का संकल्प लिया था इसी के बाद से पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

स्मॉल इज व्यूटीफुल ( 1974 ) :-

महात्मा गाँधी हमेशा लघु या कुटीर - उधोगों के पक्ष में रहे। वे आर्थिक क्रियाकलापों के विकेंद्रीकरण पर जोर देते थे वे बड़े उद्योगों के विरोधी नहीं थे वरन उनका विचार था की बड़े उद्योग तभी स्थापित किए जाए जब उनके उत्पादों को छोटे उद्योगों में न बनाया जा सके क्योंकि बड़े उद्योगों की मशीने रोजगार के अवसरों को कम कर देती है और पूँजी का केंद्रीकरण करती है शुमेसर ने भी 1974 में अपनी पुस्तक स्मॉल इज व्यूटीफुल में गाँधीजी के इन विचारों का जोरदार समर्थन किया। 

आवर कॉमन फ्यूचर ( 1987 ) :-

ब्रुंड्टलैंड कमीशन ने आर्थिक क्रियाकलापों का विश्व स्तर पर गहन अध्ययनकर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और उपयोग के लिए पूरे विश्व के संदर्भ में अपनी रिपोर्ट पस्तुत की इसमें पहली बार सतत पोषणीय विकास का विचार प्रस्तुत किया गया बाद में उन्होंने हमारा साझा भविष्य नाम,से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसमें भविष्य की आवश्यकताओ को ध्यान में रखकर संसाधनों के वर्तमान उपयोग का विवेचन किया गया है इस रिपोर्ट का प्रभाव पूरे विश्व में इस प्रकार फैला की सभी उद्वेलित हो उठे और फिर विश्व के 170 देशों ने ब्राजील में बैठकर इस समस्या पर गहराई से विचार - विमर्श किया। इस बैठक को पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। 

विश्व पर्यावरण सम्मेलन ( 1987 ) :-

कनाडा के मोंट्रियल नगर में ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडल में असंतुलित वृद्धि पर चिंता प्रकट की गई उद्योग प्रमुख देशो से अनुरोध किया गया की वे वायुमंडल को प्रदूषित करनेवाली गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करें। 

प्रथम पृथ्वी सम्मेलन ( 1992 ) :-

रियो डी जेनेरो के पृथ्वी सम्मेलन में पूरे विश्व में पर्यावरण के क्षरण तथा विभिन्न भागों में असंतुलित आर्थिक विकास से उत्पन्न समस्याओ पर विचार करने के लिए 1992 में 170 देशों ने एक बैठक की। इसमें भूमंडलीय तापन जलवायु में परिवर्तन , जीवमंडल को होनेवाली हानि जैसी अनेक समस्याओ का गहन विवेचन किया गया और पृथ्वी को विनाश से बचाने का संकल्प लिया गया इस सम्मेलन के कार्यक्रम 21 में सतत पोषणीय विकास का उल्लेख है जो इक्कीसवीं सदी में आनेवाली परिस्थियों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया था संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण और विकास सम्मेलन में इसका उल्लेख किया गया है इसमें पर्यावरण को होनेवाली हानि , गरीबी , स्वास्थ्य समस्याओ इत्यादि को हल करने के लिए विश्व स्तर पर पारस्परिक सहयोग पर तो बल दिया ही गया है सतत पोषणीय विकास पर विशेष बल दिया गया है सभी देशों से अनुरोध किया गया है कि वे क्षेत्रीय परिस्थितियों को देखते हुए समुचित नियमों का निर्धारण करें तथा उनका पालन कराई से करें और सतत पोषणीय विकास के लिए स्थानीय लोगों को जागरूक बनाने का प्रयास करें इस कार्यक्रम पर होनेवाले खर्च को वहन करने के लिए विश्व पर्यावरण कोष की स्थापना की गई। 

द्वितीय पृथ्वी सम्मेलन ( 1997 ) :-

प्रथम पृथ्वी सम्मेलन द्वारा पारित प्रस्तावों और सुझावों के मूल्यांकन के लिए 1997 में 23 जून से 27 जून तक न्यूयॉर्क में पुनः सम्मेलन आयोजित किया गया। 5 वर्षो के कार्यो और प्रगति का मूल्यांकन होने के कारण इसे 5 प्लस सम्मेलन भी कहा जाता है। 

क्योटो सम्मेलन ( 1997 ) :-

जापान के क्योटो शहर में दिसंबर 1997 में आयोजित यह सम्मेलन मुख्यतः भूमंडलीय तापन पर केंद्रित था क्योंकि इसका विरोध संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इस सम्मेलन में 159 देशों ने भाग लिया। 1987 के मोंट्रियल के ग्रीनहाउस सम्मेलन के उद्देशो पर विस्तार से विचार - विमर्श किया गया सम्मेलन ने 6 विशिष्ट गैसों को भूमंडलीय तापन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार घोषित किया। 

तृतीय पृथ्वी सम्मेलन ( 2002 ) :-

दक्षिण अफ्रीका के जोहांसबर्ग नगर में 2002 में आयोजित इस सम्मेलन में पर्यावरण से संबंधित 150 धाराओं पर विस्तृत चर्चा के बाद विश्वस्तरीय सहमति बनाने का प्रयास किया गया , परंतु मत - भिन्नता के कारण इस पर व्यापक सहमति नहीं बन पाई सम्मेलन में उपस्थित विश्व के विभिन्न देशों के लगभग 2000 प्रतिनिधियों ने इस समस्या के समाधान के लिए पुनः वार्ता करने का निर्णय लिया। 

व्यापार का महत्त्व और प्रभाव को लिखें ?

 व्यापार का महत्त्व और प्रभाव 

सबसे अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करने वाला क्रियाकलाप व्यापार ही है इससे होनेवाले लाभों से ही इसका महत्त्व समझा जा सकता है। 

वस्तु या सेवाओं का विनिमय :-

भिन्न - भिन्न प्रकार के जलवायु और मिट्टी के आधार पर भिन्न - भिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन होता है कहीं चावल पैदा होता है तो कहीं गेहूँ और कहीं पर कुछ भी नहीं। यही हाल खनिजों का भी है अतः लोग वस्तुओं के पारस्परिक आदान - प्रदान कर काम चलाते है इसी प्रकार सेवाओं का भी आदान - प्रदान होता है मजदूर काम करता है बदले में उसे वेतन मिलता है जिससे वह अपनी जरूरत की सामान खरीदता है सभी लोग बाजार से सब्जी , फल , दवाइयाँ , कपड़े तथा अन्य सामान खरीदते है क्योंकि ये सभी सामान भिन्न - भिन्न स्थानों पर उत्पन्न होते है अंतरराष्ट्रीय व्यापार में यही काम दो देशों के बीच होता है। 

अर्थव्यवस्था के विकास की कुंजी :-

किसी देश के विकास की माप उसके व्यापार के आधार पर की जाती है जैसे बाजार में जिस दुकान पर ग्राहकों की भीड़ जमी रहती है उस दुकान के मालिक की आमदनी भी अधिक होती है जिन कारखानों का उत्पाद अधिक बिकता है उनका उत्पादन भी उसी रूप में बढ़ता है और उनकी आर्थिक स्थिति भी विकसित होती है उसी प्रकार वही किसान धनी कहलाता है जिसके खेतों का उत्पादन अधिक हो ताकि अधिक उत्पादन बाजार में बेचे जा सके। 

रोजगार के अवसर :-

व्यापार में प्रायः सभी लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होते है कारखानों , कार्यलयों , विद्यालय इत्यादि में संस्थागत रोजगार मिलते है दुकानों , खेतों में काम करने वाले मजदूर या भवन निर्माण के काम में लगे लोग , फल , सब्जियाँ बेचनेवाले , खुदरा व्यापार करनेवाले लोगों का व्यापार निजी क्षेत्र का होता है दुनियाँ के सभी धनी व्यक्ति किसी न किसी व्यापार के कारण ही अरबपति या खरबपति बने है इनके अलावा , कुछ ऐसे भी व्यापार है जिनमें अप्रत्यक्ष रूप से आय की प्राप्ति होती है फिर भी इस ढंग से भी व्यापार करना लोगों की विवशता हो जाती है क्योंकि इसी से उनकी भोजन , वस्र इत्यादि की आवश्यकताओ की पूर्ति हो सकती है। 

बहुविध विकास :- 

प्राचीनकाल में भारत के व्यापारी अरब और यूरोप तक रेशम , मसालों इत्यादि का व्यापार करते थे इससे विभिन्न भागों की भाषाओं , संस्कृतियों , रीतिरिवाजों की जानकारी प्राप्त कर लेते थे सब्जी और फल बेचनेवाले उँगलियों पर ही सामानों का मूल्य जोड़ लेते है व्यापार में अनेक तरह के लोगों से मिलना पड़ता है साथ ही लाभ तो होते है इस प्रकार व्यापार से व्यक्ति , समाज और देश का बहुविध होता है। 

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता को लिखें ?

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता 

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता निम्नलिखित है :-

  1. निर्यात उद्योग का बढ़ावा  
  2. भारतीय उधमियों में प्रतिस्पर्द्वा की भावना का आभाव 
  3. स्वदेशी आंदोलन का उद्योगों पर प्रभाव 
  4. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद औधोगिकीकरण में तेजी
निर्यात उद्योग का बढ़ावा :- 

भारत में औद्योगिक विकास के संदर्भ में कुछ विशिष्टताएँ स्पष्ट तौर पर नजर आती है भारतीय उद्योगों के प्रबंधन पर यूरोपीय एजेंसियों का नियंत्रण था उद्योगों में भारतीय साहूकार एवं उधमी धन लगाते थे परंतु इनका प्रबंधन गिनी - चुनी यूरोपीय एजेंसियाँ ही करती थी इनकी विशेष प्रकार की उत्पादनों में रूचि थी ये वैसे उत्पादों को बढ़ावा देती थी जिनका निर्यात किया जा सके। इसलिए इन्होंने सरकार से सस्ती जमीन लेकर बागान उद्योग को बढ़ावा दिया चाय और कॉफी के बागान लगवाए गए नील एवं जूट की खेती को प्रोत्साहन दिया गया खनन उद्योग को भी जैसे कोयला उद्योग को विकसित किया गया इन उत्पादों को बड़े स्तर पर निर्यात किया गया भारत में इन्हें नहीं बेचा गया 1850 से 1914 तक निर्यात किए जानेवाले ऐसे सामानों का भी उत्पादन हुआ जो राष्ट्र के लिए लाभदायक थे जैसे चाय और पटसन वैसे माल का भी उत्पादन हुआ जिसमे विदेशी प्रतिद्धंद्विता अधिक नहीं थी जैसे मोटा कपड़ा। 

भारतीय उधमियों में प्रतिस्पर्द्वा की भावना का आभाव :-

जिस समय भारतीय उधमी उद्योगों में पूँजी निवेश कर रहे थे उस समय इंगलैंड में बने कपड़े का भारत में बहुत बड़े स्तर पर आयात किया जा रहा था बाजार में मेनचेस्टर के बने कपड़ो की बाढ़ सी आ गई थी सूत का आयात बहुत अधिक नहीं किया जाता था इसलिए भारतीय सूती मिलों में मोटे सूती धागे ही बनाए गए कपड़ा नहीं। भारतीय मिलों में बनाया गया सूती धागा भारतीय हथकरघा बुनकरों द्वारा व्यवहार में लाया जाता था चीन को इनका निर्यात भी किया जाता था बाद में सूती मिलों में अच्छे कपड़े भी बुने जाने लगे। 

स्वदेशी आंदोलन का उद्योगों पर प्रभाव :- 

लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप स्वदेशी आंदोलन का व्यापक रूप से विकास हुआ इस आंदोलन ने स्वदेशी की भावना बलवती की तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को बढ़ावा दिया विदेशी वस्त्रो के बहिष्कार से उत्साहित होकर भारतीय उधोगपतियों ने धागा के स्थान पर कपड़ा बनाना आंरभ किया इससे वस्र उत्पादन में गति आई।1912 तक सूती वस्र उत्पादन दोगुणा हो गया उधोगपतियों ने अपने को संगठित कर लिया अपने हितों की सुरक्षा के लिए इन लोगों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयात शुल्क में वृद्धि करे तथा देशी उद्योगों को रियायतें प्रदान करे। 20वीं सदी के आरंभ तक चीन को निर्यात किए जानेवाले सूती धागे की मात्रा में अधिक गिरावट आ गई थी इसका कारण था चीनी बाजारों में चीन और जापान के बने वस्रों की भरमार। निर्यात में आई कमी की क्षतिपूर्ति के लिए भारतीय उधमियों ने सूती मिलों में वस्र का उत्पादन बढ़ा दिया। 

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद औधोगिकीकरण में तेजी :-

प्रथम विश्वयुद्ध तक भारत का औद्योगिक विकास धीमी रहा परंतु युद्ध के दौरान और उसके बाद इसमें तेजी आई इसके निम्नलिखित कारण थे :-
  1. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन में सैनिक आवश्यकताओ के अनुरूप अधिक सामान बनाए जाने लगे इसलिए मैनचेस्टर में बननेवाले वस्र उत्पादन में गिरावट आई इससे भारतीय उधमियों को अपने बनाए गए वस्र की खपत के लिए देश में ही बहुत बड़ा बाजार मिल गया फलतः सूती वस्रों का उत्पादन तेजी से बढ़ा। 
  2.  विश्वयुद्ध के लंबा खिंचने पर भारतीय उधोगपतियों ने भी सैनिको की आवश्यकता के लिए सामान बनाकर मुनाफा कमाना आरंभ कर दिया सैनिको की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए देशी कारखानों में भी सेनिको के लिए वर्दी , जूते , जूट की बोरियाँ , टेंट , जीन इत्यादि बनाए जाने लगे इससे देशी कारखानों में उत्पादन बढ़ा। 
  3. युद्ध काल में कारखानों में उत्पादन बढ़ाने के अतिरिक्त अनेक नए कारखाने खोले गए मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि हुई इनके कार्य करने की अवधि में भी बढ़ोतरी की गई। फलस्वरूप उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई। 

भारत में वन्य पशुओं का संरक्षण क्यों आवश्यक है ?

वन्य पशुओं का संरक्षण 

वन्य पशुओं से समाज को अनेक लाभ है भविष्य के लिए भी इन्हें लुप्त होने से बचाना आवश्यक है इस दृष्टि से सरकार द्वारा राष्ट्रीय प्राणी उद्यान और वन्य जीव अभयारण्य तथा जैव मंडल आरक्षित क्षेत्र स्थापित किए जा रहे है। 

राष्ट्रीय प्राणी उद्यान :-

राष्ट्रीय प्राणी उद्यान वह क्षेत्र है जो राष्ट्र के प्राकृतिक और ऐतिहासिक गौरव को सुरक्षित रखने के लिए स्थायी नियमों द्वारा स्थापित किया गया हो तथा उस क्षेत्र के वन्य जीवन को सुरक्षित रखते हुए इस प्रकार से मनोरंजन उपलब्ध करे की उसमे भावी पीढ़ियों के लिए किसी प्रकार की कटौती न हो भले ही स्थानीय कारणों से उसमें परिवर्तन होता रहे। भारत में राष्ट्रीय उद्यानो की संख्या 102 है जिसमें 85 प्रमुख है।

अभयारण्य :-

अभयारण्य किसी सक्षम अधिकार द्वारा स्थापित वह क्षेत्र है जिसके अंदर जब तक उच्चतम स्थली - व्यवस्था - अधिकारी की अनुमति प्राप्त न की हो तब तक किसी भी पक्षी या पशु को मारना या पकड़ना वर्जित है। 

जैव मंडल :-

जैव मंडल वह क्षेत्र है जहाँ प्राथमिकता के आधार पर जैव विविधता के कार्यक्रम चलाए जाते है विश्व में अभी प्रमुख जैव मंडलों की संख्या 243 है जो 65 देशों में फैले है इनमें से 18 जैव मंडल भारत में है। 

अभी भारत में राष्ट्रीय उधानो और अभयारण्य की कुल संख्या क्रमशः 102 और 528 है यहाँ 18 जीव - आरक्षण क्षेत्रों का भी विकास किया गया है ये जीवों के लिए बहुउद्देशीय आरक्षित क्षेत्र है राष्ट्रीय प्राणि उद्यान अपेक्षाकृत एक विस्तृत क्षेत्र है इसमें एक या अधिक परितंत्र पाए जाते है अभयारण्य की स्थापना मुख्य रूप से वन्य प्राणियों की प्रजातियों को सुरक्षित रखने के लिए होती है। 

भारत का पहला जीव - आरक्षण क्षेत्र नीलगिरि में बनाया गया जो 5520 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है 1988 में नंदादेवी क्षेत्र में और मेघालय के नोकरेक में तीन आरक्षण क्षेत्र स्थापित किए गए अंडमान - निकोबार , अरुणाचल प्रदेश , राजस्थान , गुजरात , असम आदि में जीव - आरक्षण क्षेत्र बनाए जा चुके है। 

सरकारी तौर पर वन संरक्षण का वृहत पैमाने पर उदाहरण 1988 में मिला जब ओडिसा की सरकार ने अपने राज्य में संयुक्त वन प्रबंधन का प्रस्ताव पास किया इस प्रस्ताव के अनुसार ग्रामीण समुदाय और सरकार मिलकर संयुक्त रूप से वनों का संरक्षण और विकास करेंगे। 

वन संरक्षण और वन विकास के उपाय :-

  1. वानिकी शिक्षा बढ़ाई जाए वन - अनुसंधान केंद्र खोले जाए अभी वन विभाग का मुख्य अनुसंधान केंद्र देहरादून में स्थापित है। 
  2. वनों के प्रति नया दृष्टिकोण अपनाया जाए और प्राचीनकाल की वन्य संस्कृति पुनजीर्वित की जाए। 
  3. प्रति वर्ष नए वन लगाए जाए 1952 में प्रत्येक वर्ष वन महोतस्व मनाया जा रहा है। 
  4. वन संरक्षण के लिए नई योजनाए चालू की जाए बाघ परियोजना जिसके अंतर्गत 43 व्याघ्र अभयारण्य है बाघ परियोजना का ही यह परिणाम है की जहाँ 1973 में बाघों की संख्या भारत में 1827 थी वह बढ़कर 1985 में 4002 और 1989 में 4334 हो गई पुनः 2006 में बाघों की संख्या 1411 हो गई थी जो 2010 में बढ़कर 1706 हो गई बाघ संरक्षण का उद्देश्य बाघ के अलावा बड़े आकार के जैव जाति को भी बचाना है देश में हाथी परियोजना और घड़ियाल परियोजना भी चालू हो चुकी है राजस्थान का घाना पक्षी - विहार भारत में सबसे बड़ा है मोर को राष्ट्रीय पक्षी और बाघ को राष्ट्रीय पशु होने का गौरव प्राप्त है। 

भारतीय वनों के कुछ महत्वपूर्ण उत्पाद को लिखे ?

भारतीय वनों के उत्पाद 

भारतीय वनों से अनेक पदार्थ प्राप्त होते है उत्पादों को दो वर्गो में बाँटा गया है -

  1. इमारती लकड़ी और जलावन जैसे प्रमुख उत्पाद। 
  2. गौण उत्पाद। 
प्रमुख उत्पादवाले वनों में टीक , देवदार , साल , शीशम , चीड़ इत्यादि के पेड़ो की बहुलता होती है। गौण उत्पाद के वनों से भी आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कई उत्पाद उपलब्ध होते है जैसे बाँस , केन , गोंद , रेजिन , डाई , टेन ( रंग - रोगन के पदार्थ ) , लाह , रेशे , चारा , औषधीय पदार्थ इत्यादि। 
  • 167 महत्वपूर्ण कृषि पादप वनस्पतियों के साथ भारत को विश्व का विविध पौधों का प्रमुख केंद्र माना जाता है। 
  • चावल , बाजरा ,ज्वार , गन्ना , आम , नींबू , केला और जूट जैसी प्रमुख फसलें भारतीय मूल की है यही से ये विश्व के अन्य भागों में पहुँची है। 
  • भारत के पश्चिमी घाट , हिमालय क्षेत्र , उत्तर पूर्वी भारत और अंडमान - निकोबार द्वीपसमूह जैव विविधता में अग्रणी है ये चार क्षेत्र विश्व के 34 हॉट स्पॉट में गिने जाते है। 
  • फसलों की कम से कम 136 तथा वन - संबंधी 320 प्रजातियॉ भारतीय मूल की है। 
  • भारत के 33 प्रतिशत पुष्पीय पौधे भारतीय मूल के है। 
  • भारत में अकेले चावल की 50000 से 60000 प्रजातियॉ पाई जाती है। 


कुछ महत्वपूर्ण वन - उत्पाद निम्नलिखित है :-
  1. इमारती लकड़ी 
  2. सानवुड 
  3. प्लाईवुड 
  4. फाइबर बोर्ड 
  5. कागज 
  6. सेल्युलोस 
  7. रबर 
  8. च्युंगम 
  9. कॉर्क 
  10. टैनिन 
  11. खजूर और बॉस 
  12. तारपीन का तेल 
  13. औषधियाँ 
  14. फल और मसाले 
इमारती लकड़ी :-

अल्प विकसित क्षेत्रों में इसका 40 प्रतिशत जलावन के रूप में तथा विकसित क्षेत्रों में गृह - निर्माण में उपयोग होता है। 

सानवुड :-

इस प्रकार की लकड़ी बहुत मजबूत होती है ये लकड़िया रेल लाइनों के नीचे के स्लीपर बनाने तथा नमीवाले स्थानों पर निर्माण - कार्य में उपयोग की जाती है कोणधारी वनो की लकड़िया से तख्ते , घरों की मुँडेर और नीवे बनाई जाती है महोगनी और रोजवुड से खूबसूरत फंर्नीचर तैयार होते है पाईन की लकड़ी से चिकनी और चमकदार सतह के समान बनते है ये अपेक्षाकृत सस्ते भी होते है। 

प्लाईवुड :-

सस्ती लकड़ियों तथा लकड़ी के बुरादों के ऊपर सानवुड की पत्ती साटकर विभिन्न मोटाई का प्लाईवुड बनाया जाता है। 

फाइबर बोर्ड :-

लकड़ी के बुरादे , लुगदी और कचरे पदार्थो को सटाकर प्लाईवुड , ब्लैकबॉर्ड , चिपबोर्ड और फर्नीचर बनाए जाते है द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनी में लकड़ी का उपयोग मुख्यतः लड़ाई के जहाजों के लिए होता था और अन्य उपयोग के लिए प्लाईवुड बनाया जाता था जिससे लकड़ी की बचत हो सके। इस प्रकार प्लाईवुड का निर्माण सर्वप्रथम जर्मनी से शुरू हुआ था। 

कागज :-

लकड़ी के पल्प से कागज बनाया जाता था। 

सेल्युलोस :-

सूती मिलों में रुई अलग करने के बाद कपास के बीजों से सेल्युलोस प्राप्त किया जाता था इससे रेयन बनाया जाता था। 

रबर :-

पहले यह भी वनों से प्राप्त किया जाता था परंतु अब इसकी खेती की जाती है। 

च्युंगम :-

मध्य अमेरिका के चिकले तथा दक्षिण - पूर्व एशिया के जेलुटांग नामक पौधों के उपयोग से च्यूंगम बनाया जाता है। 

कॉर्क :-

ओक की छाल से कॉर्क बनाया जाता है। 

टैनिन :-

मैंग्रोव वनों से टैनिन प्राप्त होता है इसका उपयोग चर्म उद्योग में होता है। 

खजूर और बाँस :-

खजूर तथा बाँस का उपयोग प्रायः चटाइयाँ , टोकरियाँ , फर्नीचर इत्यादि बनाने में होता है। 

तारपीन का तेल :-

कोणधारी वनों से तारपीन का तेल प्राप्त होता है। 

औषधियाँ :-

सिनकोना से कुनैन दवा बनती है सुहागा और अनगिनत औषधियाँ विभिन्न औषधीय पौधों से बनाई जाती है। 

फल और मसाले :-

पहले ये सभी वनों से ही प्राप्त होते थे परंतु आजकल इन सबकी खेती होने लगी है। 

रेलमार्ग के विकास की कुछ उपलब्धियाँ को लिखें ?

रेलमार्ग के विकास की कुछ उपलब्धियाँ 

रेलमार्ग के विकास की कुछ उपलब्धियाँ निम्नलिखित है -

  1. मंगलूर और मुंबई के बीच रेलमार्ग बना है।  
  2. फरक्का और मोकामा में गंगा नदी पर रेलपुलो का निर्माण किया गया है। 
  3. तीव्रगामी रेल सेवाएँ आरंभ की जा चुकी है जैसे शताब्दी एक्सप्रेस , राजधानी एक्सप्रेस और दुरंतो एक्सप्रेस। 
  4. भूमिगत रेलमार्ग बने है ( कोलकत्ता और दिल्ली में )
  5. लंबी दूरी की गाड़िया आरंभ की गई है जैसे डिब्रूगढ़ से कन्याकुमारी तक विवेक एक्सप्रेस ( साप्ताहिक )
  6. सामान और सवारी की ढुलाई में अत्यधिक वृद्धि तथा औधोगिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
  7. अधिकांश स्टेशनों पर आरक्षण के लिए कंप्यूटर का प्रयोग 
  8. महानगरों में दैनिक यात्रियों के आवागमन के लिए DMU , EMU और MEMU रेलगाड़ी चलाई जा रही है। 
  9. जनशताब्दी नाम से चलनेवाली गाड़िया दो बड़े महानगरों या बड़े नगरों को जोड़ती है। 
  10. आजकल रेल इंजनों में स्वनियंत्रण युक्ति ACD की व्यवस्था रहती है जिससे दुर्घटनाओं को रोकने में सहायता मिलती है। 
  11. देश की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत की ओर देश - विदेश के पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए राजस्थान में शाही रेलगाड़ी पैलेस ऑन ह्रिल्स , महाराष्ट्र में डेक्कन ओडेसी , शिमला, ऊटी।  माउंट आबू , दार्जिलिंग इत्यादि पर्वतीय पर्यटन - स्थलों के लिए नैरो गेज या विशिष्ट गेज की गाड़िया बहुत धीमी गति से चलाई जाती है। 
  12. भारतीय रेलवे से एक वर्ष में यात्रा करनेवाले यात्रियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 6 गुणा है। 
  13. रेलवे की संपत्ति और यात्रियों की सुरक्षा का भार GRP , GRF , RPF पर है। 
  14. भारतीय रेल प्रणाली एशिया की सबसे बड़ी और विश्व में चौथे स्थान पर है भारत में कुल 20884 किलोमीटर रेलमार्ग विधुतीयकृत है। 
  15. विधुतीकृत रेलगाड़ियाँ रूस के बाद सबसे अधिक भारत में ही चलती है। 
  16. पटना में गंगा नदी पर रेल पुल के निर्माण का कार्य प्रगति पर है जिससे बिहार के दूरस्थ स्थानों की यात्रा में समय तथा पैसे की बचत होगी। 
  17. चेन्नई , हैदराबाद , जयपुर , कोचीन एवं लखनऊ में मेट्रो रेल चलाए जाने के लिए कार्य जारी है। 
  18. अभी तक मेघालय एकमात्र ऐसा राज्य था जहाँ रेलमार्ग विकसित नही हो पाया था परंतु 26 नवंबर 2014 को वहाँ के मेंहदीपत्थर से गुवाहाटी तक पहली यात्री रेल सेवा प्रारंभ हो गई।


नोट :- 

  • भारत में 7172 रेलवे स्टेशन है। 
  • रेलमार्ग की कुल लंबाई 65436 किलोमीटर है। 
  • भूमिगत रेलमार्ग कोलकाता और दिल्ली में बनाए जा चुके है। 
  • रेलमार्गो का विधुतीकरण तेजी से किया जा रहा है। 
  • 57256 यात्री गाड़ियों और 6614 अन्य सवारी गाड़ियों को चलाने के लिए 9956 रेल इंजन है। 
  • 16 जुलाई 1991 को जीवन - रेखा एक्सप्रेस नाम की एक विशेष रेलगाड़ी चलनी शुरू हुई इसके डिब्बों में अत्याधुनिक सुविधायुक्त अस्पताल है यह रेलगाड़ी देश के विभिन्न भागों विशेषतः पिछड़े क्षेत्रों में विभिन्न स्टेशनों पर कुछ दिन रुककर उस क्षेत्र के रोगियों का इलाज करने में मदद करती है और फिर अगले पड़ाव के लिए चल परती है जहाँ पूर्व सूचना के अनुसार रोगियों को बुला लिया जाता है यह विश्व में अपनी तरह की एक अनोखी रेलगाड़ी है इसे पहियों पर चलनेवाला अस्पताल भी कहा जाता है। 

संचार का महत्त्व और प्रभाव को लिखें ?

 संचार का महत्त्व और प्रभाव 

संचार कई दृष्टिकोणों से अति महत्वपूर्ण है जिनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित है - 

समाचार का ज्ञान :-

प्राचीनकाल में समाचार पहुँचाने के लिए हरकारों का उपयोग होता था डाक की सुविधा से लोग पत्रों द्वारा दूर - दूर तक समाचार पहुँचाते है अब तो मोबाइल सुविधा उपलब्ध होने पर पत्राचार प्रायः बंद ही हो गया है समाचारपत्र , रेडियो , टेलीविजन से विश्व के किसी भाग में होनेवाली घटना की सूचना हमे तत्काल मिल जाती है दुर्घटनाओं की जानकारी तुरंत मिलने से सहायता शीघ्र पहुँचाई जा सकती है। 

आर्थिक विकाश :-

किसानों को मौसम की जानकारी रेडियो या टेलीविजन द्वारा मिलती रहती है वर्षा , सूखा , तूफान इत्यादि की स्थिति देखकर वे फसल लगाने , सिंचाई करने अथवा समुचित सुरक्षा का निर्णय लेते है अब तो रेडियो या टेलीविजन द्वारा किसानों को आवश्यक शिक्षा और सलाह भी उपलब्ध कराई जा रही है व्यापारी भिन्न - भिन्न भागों में बाजार भाव की जानकारी प्राप्त कर उसका उपयोग अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए करते है वैशवीकरण के बाद तो विश्वबाजार की स्थिति देखकर ही व्यापार की दिशा तय की जाती है शेयर बाजार तो पूरी तरह संचार - व्यवस्था पर आधारित है इस प्रकार संचार सर्वांगीण विकास का मुख्य माध्यम है। 

मनोरंजन और ज्ञान का विकास :-

समाचारपत्र , रेडियो , टेलीविजन , सिनेमा से ज्ञान की प्राप्ति के साथ मनोरंजन भी होता है इनके बिना मनुष्य पशुतुल्य हो जाएगा अब तो इंटरनेट की सुविधा से ज्ञान का अक्षय और अपार भंडार हाथ लग गया है इससे दूरस्थ कक्षा में शिक्षा भी दी जाने लगी है तथा टेली - मेडिसिन द्वारा किसी देश के डॉक्टर की सलाह दूसरे देश में मरीजों को मिल जा रही है लोग घर बैठे सिनेमा और सीरियल भी देख सकते है तथा विश्व के किसी कोने में होनेवाले खेल या संगीत कार्यक्रमों का आनंद उठा सकते है। 

विश्वबंधुत्व की भावना का विकास :-  

ई-मेल , फेसबुक , ट्विवटर इत्यादि के जमाने में कोई अपने आप को देश - दुनिया से अलग कैसे रख सकता है बच्चे या बूढ़े अपने ट्विवटर या फेसबुक से सारी दुनिया से संवाद करते है ई-मेल तो चैटिंग ( गपबाजी ) के लिए मशहूर है चाहे जान - पहचान भले न हो। न भाषा रोक पाती है न देश की सीमाएँ। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद भी कंप्यूटर ही कर देता है इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी तथा सलाहकार कंपनियाँ विश्व के किसी भाग में अपनी सेवाएँ देती है। 

वन और जीवों के प्रति भारत की आस्था क्या है ?

वन और जीवों के प्रति भारत की आस्था  

वनों और जीवों के प्रति भारत में एक विशेष लगाव रहा है धार्मिक रूप में भी अनेक वृक्षो को देवी - देवताओं की तरह पूजा जाता है पीपल , बरगद , तुलसी , आम , महुआ , कदंब , सखुआ इत्यादि पौधे कहीं न कहीं पूजे जाते है कुछ अन्य उदाहरण निम्नलिखित है -  

  1. भारत में नदियों , वृक्षो , जंतुओं को स्वाभाविक रूप से परोपकारी माना गया है और उन्हीं के समान परोपकारी स्वभाव के मनुष्य को श्रेष्ठ या महात्मा माना गया है परोपकाराय फलन्ति वृक्षा : , परोपकाराय वहन्ति नध:। परोपकाराय दुहन्ति गाव : , परोपकाराय सतां विभूतये।। 
  2. बौद्ध और जैन धर्मों में भी अहिंसा परमो धर्म : का उपदेश दिया गया है 487 ई० पू० में गौतम बुद्ध ने कहा था " पेड़ एक विशेष असीमित दयालु और उदारतापूर्ण जीवधारी है जो अपने सतत पोषण के लिए कोई माँग नहीं करता और दानशीलतापूर्वक अपने जीवन की क्रियाओं को भेंट करता है यह सभी की रक्षा करता है और स्वयं पर कुल्हाड़ी चलानेवाले विनाशक को भी छाया प्रदान करता है " आदमी को इससे कुछ तो सीखना चाहिए। 
  3. ईसा पूर्व पहली शताब्दी में आयुर्वेद्र के जनक महर्षि चरक ने अपनी चरकसंहिता में 200 प्रकार के उपयोगी पशुओं और 340 प्रकार के उपयोगी पौधों का उल्लेख किया है और इनकी उपयोगिता का वर्णन किया है। 
  4. लगभग 2400 वर्ष पूर्व सम्राट अशोक ने उस लंबी सड़क के किनारे पेड़ लगवाया था जिसे आज ग्रैंड - ट्रंक रोड के नाम से पुकारा जाता है उसी सम्राट अशोक ने बिहार के उत्तरी भाग में चंपा के वृक्षो से सेकड़ो किलोमीटर वन विकसित करवाया था इसीलिए आज भी इसे चंपारण के नाम से पुकारा जाता है इस वन में वन्य जीवों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगा था। 
  5. 1731 की एक घटना है इस समय राजस्थान के जोधपुर जिले के विशनोई गाँव के पास के जंगलों में लकड़ी काटने के लिए तत्कालीन महाराजा के कुछ आदमी गए हुए थे महाराजा के लिए एक नए महल के निर्माण का विचार किया गया और इसके लिए उत्तम मजबूत लकड़ी जुटाने के लिए उन्होंने अपने आदमियों को जंगल में भेजा था उस समय गाँव के बहुत से लोग ने अमृता देवी नाम की एक महिला के नेतृत्व में लकड़ी काटने का विरोध किया फलस्वरूप राजा के आदमी खाली हाथ लौट गए राजा को पूरी घटना की जानकारी दी गई उन्होंने इस घटना पर क्रोध व्यक्त नहीं किया , बल्कि अपनी भूल पर पशचात व्यक्त किया और भविष्य में किसी जंगल से लकड़ी काटने या उसे हानि पहुँचाने पर प्रतिबंध लगा दिया वन संरक्षण के उनके प्रयास के लिए केवल उन्हें ही नहीं , बल्कि अमृता देवी को भी अब भी याद किया जाता है और आगे भी किया जाता रहेगा। 
  6. राजस्थान के सरिस्का बाघ रिजर्व के वन्य जीवों के संरक्षण के लिए स्थानीय लोग खदानों में होनेवाले खनन - कार्य का विरोध कर रहे है उनका कहना है की इससे वनस्पतियों और जीवों को हानि पहुँच रही है। 
  7. राजस्थान के ही अलवर जिले के पाँच गावों के लोगों ने 1200 हेक्टेयर वन क्षेत्र में बाहरी लोगों का प्रवेश रोक दिया है। 
  8. आदिवासियों का तो जीवन ही जंगल पर निर्भर है और वे ही इसके सबसे बड़े संरक्षक भी है प्रजनन काल में वे मादा पशुओं का शिकार करना पाप समझते है पौधों के उगने के मौसम में वे अपने पशुओं को जंगल के उस भाग में चराने के लिए नहीं ले जाते है वन के संसाधनों का वे बड़ी चतुराई से चक्रिय क्रम में उपयोग करते है कभी - कभी विरल वनों में नए पौधों का रोपणकर उसे फिर से घना करने का कार्य करते है वस्तुतः वे वनवासी ही प्रकृति के सच्चे संरक्षक है। 
  9. उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले में सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा संचालित चिपको आंदोलन बहुत प्रसिद्ध है जब आर्थिक लाभ के लिए ठीकेदारों ने इस क्षेत्र के हरे - भरे वृक्षो का सफाया करना प्रारंभ किया तो 1972 में बहुगुणा ने स्थानीय निवासियों को मिलाकर यह आंदोलन शुरू किया इस आंदोलन में कटनेवाले पेड़ से एक व्यक्ति चिपककर खड़ा हो जाता था और वृक्ष काटनेवालों से कहता था की पहले मुझपर कुल्हाड़ी चलाओ हमारे बाद ही यह पेड़ काटा जा सकेगा इस प्रकार इस क्षेत्र का प्राकृतिक वातावरण अक्षुण्ण रखा जा सका। 
  10. जम्मू - कश्मीर , हिमालय प्रदेश , उत्तराखंड और उत्तरी पंजाब के वनों के संरक्षण के लिए स्थानीय लोगों का आंदोलन बहुत ही कारगार रहा है। 
  11. जंतुओं को भी हानि नहीं पहुँचाई जाती है। 

जैव रासायनिक चक्र का महत्व

जैव रासायनिक चक्र  

सूर्य की उपस्थिति में जीवमंडल में जैविक घटक से अजैविक घटक और फिर अजैविक घटक से जैविक घटक के बीच परस्पर बदलाव का चक्र चलता रहता है जिसे हम जैव रासायनिक चक्र कहते है इस तरह के हमारे जीवमंडल में कई चक्र है -

  1. जल चक्र 
  2. ऑक्सीजन चक्र 
  3. कार्बन चक्र 
  4. नाइट्रोजन चक्र 
जल चक्र :-

पृथ्वी का करीब तीन - चौथाई भाग जल से ढका हुआ है सूर्य की गर्मी से नदी , तालाब एवं समुंद्र के जल से जलवाष्प बनता है जलवाष्प ऊपर उठता है और संघनित होकर बादल का निर्माण करता है बादल में स्थित जल की बड़ी बूँदे वर्षा के रूप में धरती पर गिरती है प्रकृति में यह चक्र चलता रहता है जिसे जल चक्र कहते है। 
  • जल - चक्र जैविक घटको द्वारा भी संपादित होता है वर्षा - जल के कुछ भाग को मिट्टी अवशोषित कर लेती है मिट्टी से पेड़ - पौधे अपनी जड़ो द्वारा सतत जल अवशोषित करते रहते है जल का कुछ भाग वे प्रकाशसंश्लेषण - प्रक्रिया द्वारा अपना भोजन बनाने में प्रयुक्त करते है तथा शेष जल वे प्रस्वेदन की क्रिया द्वारा वायुमंडल में छोड़ देते है जानवर जलाशयों से जल पीते है और उनके शरीर से जल वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में चला जाता है इस तरह से वायुमंडल , जीवमंडल , जलमंडल और स्थलमंडल के बीच लगातार जल चक्र चलता रहता है। 

जल चक्र 

 

ऑक्सीजन चक्र :-

वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा लगभग 21 % है जो हमेशा संतुलित रहती है वायुमंडल के ऑक्सीजन का उपयोग निम्नांकित तीन प्रक्रियाओ द्वारा होता है 
  1. श्वसन क्रिया में 
  2. दहन क्रिया में 
  3. नाइट्रोजन के ऑक्साइड के निर्माण में 
श्वसन क्रिया में :-

श्वसन क्रिया में हम ऑक्सीजन ग्रहण करते है और कार्बन डाइऑक्साइड का त्याग करते है जिसे पेड़ - पौधे ग्रहण करते है सूर्य की रोशनी में पेड़ - पौधे क्लोरोफिल की उपस्थिति में अपना भोजन बनाते है और ऑक्सीजन वायुमंडल में लौट जाता है। 

दहन क्रिया में :-

वायुमंडल के ऑक्सीजन का उपयोग दहन प्रक्रिया के लिए भी किया जाता है जिससे कार्बन डाइऑक्साइड बनता है कार्बन डाइऑक्साइड को पेड़ - पौधे ग्रहण करते है। 

नाइट्रोजन के ऑक्साइड के निर्माण में :-

वायुमंडल के ऑक्सीजन का उपयोग वायुमंडल में स्थित नाइट्रोजन से नाइट्रोजन ऑक्साइड बनाने में भी होता है। 
ऑक्सीजन चक्र  


कार्बन चक्र :-

सभी जीव कार्बन - आधारित कार्बनिक यौगिकों , जैसे प्रोटीन , कार्बोहाइड्रेट , वसा , विटामिन और न्यूक्लीक अम्ल पर आधारित होता है वायुमंडल में कार्बन मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में विधमान रहता है कार्बन डाइऑक्साइड जल में भी घुला पाया जाता है ज्यादातर कार्बन डाइऑक्साइड जैविक जगत में प्रकाशसंश्लेषण द्वारा प्रवेश करता है प्रकाशसंश्लेषण प्रक्रिया द्वारा पेड़ - पौधे क्लोरोफिल की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड को ग्लूकोस में बदल देते है ग्लूकोस का उपयोग जीवित प्राणियों में भोजन के रूप में अथवा ऊर्जा प्रदान करने की प्रक्रिया में होता है समुंद्री जल में घुले कार्बन डाइऑक्साइड के द्वारा चूना - पत्थर से बने चट्टान का निर्माण होता है समुद्री जीव - जंतुओं के बाहरी और भीतरी कंकाल भी कैल्शियम कार्बोनेट लवण के बने होते है कई विधियों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में पुनः लौटता है जिनमें निम्नलिखित मुख्य है -
  1. जीव - जंतुओं के श्वसन क्रिया द्वारा त्याग किए गए कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में लौट जाता है श्वसन क्रिया में जीव - जंतु ऑक्सीजन ग्रहण करते है और कार्बन डाइऑक्साइड का त्याग करते है। 
  2. वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बहुत बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधनों को जलाने से तथा ज्वालामुखी के विस्फोट से होता है इस प्रकार के कार्बन चक्र से कार्बन डाइऑक्साइड की प्रतिशत मात्रा वायुमंडल में सदैव बनी रहती है। 

कार्बन चक्र  
नाइट्रोजन चक्र :-

नाइट्रोजन चक्र के निम्नलिखित चार चरण होते है -
  1. वायुमंडल में 78 % नाइट्रोजन गैस विधमान है वायुमंडल में नाइट्रोजन के इस रूप को जीव - जंतु श्वसन क्रिया द्वारा नहीं ग्रहण कर पाते है पेड़ - पौधे भी अपने पत्तों द्वारा इस नाइट्रोजन गैस को नहीं ग्रहण कर पाते। विभिन्न प्रक्रियाओ द्वारा वायुमंडल का नाइट्रोजन नाइट्रेट , नाइट्राइट या अमोनिया में परिणत हो जाता है जिसे पेड़ - पौधे प्राप्त कर दूसरे आवश्यक अणुओं में बदल जाते है कुछ फलीदार पौधों की जड़ो में पाए जानेवाले एक खास किस्म के नाइट्रिकारी जीवाणु वायुमंडल के नाइट्रोजन को नाइट्रेट और नाइट्राइड में परिणत कर देते है आकाश में बिजली के चमकने से वायुमंडल का नाइट्रोजन ऊर्जा प्राप्त कर नाइट्रोजन के ऑक्साइड में बदल जाता है। नाइट्रोजन डाइऑक्साइड वर्षा - जल में घुलकर नाइट्रिक तथा नाइड्र्स अम्ल बनाकर भूमि की सतह पर गिरते है धरती पर ये अम्ल पृथ्वी के क्षारीय पदार्थो से अभिक्रिया कर नाइट्रेट और नाइट्राइट बनाते है जो पेड़ पौधे के लिए पोषक तत्व है। 
  2. पेड़ - पौधे नाइट्रेट और नाइट्राइट को मिट्टी से प्राप्त कर उन्हें ऐमिनो अम्ल में बदल देते है जिनका उपयोग प्लांट - प्रोटीन बनाने में होता है। 
  3. जब जंतु या पौधे की मृत्यु हो जाती है तो मिट्टी में मौजूद अन्य बैक्टीरिया मरे हुए पौधे में स्थित प्रोटीन को अमोनिया में बदल देते है इस प्रक्रिया को अमोनीकरण कहते है वायुमंडल के मुक्त नाइट्रोजन का अन्य नाइट्रोजन के यौगिकों में बदलने की क्रिया को नाइट्रोजन स्थायीकरण कहते है हैबर विधि द्वारा अमोनिया का कल्पन नाइट्रोजन स्थायीकरण का उदाहरण है। 
  4. अमोनिया जीवाणु द्वारा नाइट्रेट में परिणत हो जाता है तथा अन्य तरह के विनाइट्रीकारक जीवाणु इन नाइट्रेट एवं नाइट्राइट को नाइट्रोजन तत्त्व में बदल देते है यह नाइट्रोजन चक्र प्रकृति में चलते रहता है। 
नाइट्रोजन चक्र 

रदरफोर्ड का परमाणु मॉडल और α-कण प्रकीर्णन प्रयोग क्या है ?

 रदरफोर्ड का परमाणु मॉडल 

रदरफोर्ड नामक वैज्ञानिक ने परमाणु पर विस्तृत अध्ययन करने के बाद एक मॉडल प्रस्तृत किया जिसे रदरफोर्ड का परमाणु मॉडल कहते है इस मॉडल के अनुसार ,

  1. परमाणु के अंदर का अधिकांश भाग खाली या रिक्त रहता है। 
  2. परमाणु के नाभिक में उसका संपूर्ण द्रव्यमान केंद्रित या निहित रहता है। 
  3. नाभिक का आयतन परमाणु के आयतन की तुलना में नगन होता हैं। 
  4. नाभिक के बाहर इलेक्ट्रॉन एक निश्चित वृताकार पथ पर चक्क्रर काटते रहते है इस वृताकार पथ को कक्षा कहाँ जाता है। 
रदरफोर्ड के परमाणु मॉडल के दोष :-
  • रदरफोर्ड के विचार के अनुसार इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर चक्कर काटते रहते है जो कि युक्ति संगत नहीं है क्योंकि इस प्रकार का परमाणु कभी स्थाई नहीं हो सकता है विधुत चुंबकीय सिद्धांत के अनुसार चक्कर लगाने वाले ऋण विधुत आवेशित इलेक्ट्रॉन से लगातार ऊर्जा का ह्रास होता रहेगा फलस्वरूप धीरे - धीरे उसकी कक्षा की त्रिज्या छोटी होती जाएगी और अंत में इलेक्ट्रॉन नाभिक में गिर जाएगा। 
  • रदरफोर्ड मॉडल में कक्षाओं में उपस्थित इलेक्ट्रॉन की संख्या निश्चित नहीं की गई। 

रदरफोर्ड का 
α-कण प्रकीर्णन प्रयोग :-  

सन 1911 ई० में रदरफोर्ड नामक वैज्ञानिक ने सोने के पतले पत्तरों पर α-कण पर प्रहार कराकर एक प्रयोग किया जिसे रदरफोर्ड का α-कण प्रकीर्णन प्रयोग कहते है इस प्रयोग में उन्होंने α-कण का स्रोत एक रेडियो सक्रिय पदार्थ रेडियम लिया जिससे α-कण उत्सर्जित होते है α-कणों के बीच में सोने की पतली पत्तरों को रखा जाता है जिससे अल्फा कण गुजरते है α-कण का आवेश +2 और द्रव्यमान 4 इकाई होता है यह वस्तुतः हीलियम 2+ आयन है चूकि α-कणों का द्रव्यमान 4 amu होता है अतः तीव्र गति से चल रहे इन α-कणों में पर्याप्त ऊर्जा होती है इस प्रयोग से रदरफोर्ड को निम्नलिखित सूचनाएँ मिली।
  1. अधिकांश α-कण अपने मार्ग से बिना विचलित हुए स्वर्ण पत्तर को पार करके सीधे निकल जाते है। 
  2. कुछ α-कण अपने मार्ग से थोड़ा विचलित हो जाते है। 
  3. बहुत ही कम α-कण ( 100000 में से एक कण ) टकराकर अपने मार्ग पर पुनः वापस आ जाते  है। 

 रदरफोर्ड का α-कण प्रकीर्णन प्रयोग का निष्कर्षण :-
  1. परमाणु में अधिकतर स्थान रिक्त(खाली) है जिसके कारण अधिकतर α-कण उसमें से सीधे निकल जाते है। 
  2. धन आवेशित α-कणों का सभी दिशाओं में विचलित होना यह दर्शाता है कि परमाणु के मध्य स्थान पर कोई धन आवेश उपस्थित रहते है। 
  3. चूकि स्वर्ण पत्तर से टकराकर वापस लौटनेवाले α-कणों की संख्या बहुत कम होती है अतः परमाणु के अंदर उपस्थित धन आवेशित वस्तु का आयतन अत्यंत ही कम होता है।

स्थानांतरी कृषि क्या है? स्थानांतरी कृषि की विशेषता को लिखे।

 स्थानांतरी कृषि 

जंगल से भरे क्षेत्रों में वहाँ रहनेवाले लोग कुछ पेड़ो को काटकर और जलाकर कृषियोग्य भूमि निकाल लेते है उस भूमि पर दो - तीन वर्षो तक खेती करते है भूमि की उत्पादन शक्ति घटते ही उस स्थान को छोड़कर वे दूसरे स्थान पर चले जाते है और इसी तरह कृषियोग्य भूमि निकालकर वहाँ खेती करते है इस प्रकार स्थान बदलते हुए लोग खेती करते चलते है इस कृषि - पद्धति में उत्पादन बहुत कम होता है छोड़ी गई भूमि पर मिट्टी का ह्रास होने लगता है और वह बेकार हो जाती है पूर्वी पहाड़ी राज्यों में स्थानांतरी कृषि अब भी पाई जाती है जिसे झूम खेती कहते है। 

स्थानांतरी कृषि की विशेषताएँ :-

  1. सर्वप्रथम समुदाय के बुजुर्ग और अनुभवी लोग जंगल के बीच खाली स्थान का चुनाव करते है। 
  2. प्रायः पहाड़ी ढाल इसके लिए अधिक उपयुक्त होते है क्योंकि वहाँ वर्षा - जल स्वतः बह जाता है। 
  3. उस चुने हुए भाग की झाड़िया को काटकर छोड़ दिया जाता है और सूखने पर उन्हें जला दिया जाता है इससे मिट्टी में कुछ उर्वरता आ जाती है। 
  4. बड़े पेड़ को प्रायः काटा नहीं जाता। 
  5. वर्षा से जमीन भीगने के बाद सधारण औजारों से उसकी जुताई की जाती है। 
  6. खेत छोटे - छोटे टुकड़े में होते है। 
  7. खेती के औजार , कुदाल , फावड़ा और खुरपी आदि होते है अब नजदीक के बजारों से ये भी खरीदे जाने लगे है। 
  8. प्रायः मक्का , शकरकंद , जौ , बाजरा , पहाड़ी धान , केला , सेब इत्यादि का उत्पादन किया जाता है। 
  9. एक बार लगातार 3 वर्षो तक खेती करने के बाद उस जमीन का उपयोग पहले 20 वर्षो तक नहीं किया जाता था परंतु आबादी बढ़ने के कारण अब कुछ कम वर्षो तक ही जमीन खाली रह पाती है इस दौरान उसमें प्राकृतिक रूप से उर्वरता बढ़ जाती है। 
  10. फसल - चक्रण के स्थान पर भूमि - चक्रण का ही प्रयोग होता है। 
  11. जोति हुई खाली जमीन में मृदा अपरदन अधिक होता है बरसात में ऊपर की कुछ उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। 
  12. आजकल लोग स्थायी झोपड़ी या घर बनाकर रहने लगे है परंतु उनके निवास स्थान के आसपास की जमीन के कुछ टुकड़ो का ही एक बार प्रयोग किया जाता है और तीन वर्षो के बाद दूसरे टुकड़ो का प्रायः उनका घर इस जमीन के बीच में रहता है अनेक राज्यों में सरकारी प्रयास से निर्वाहन कृषि का प्रचलन बढ़ रहा है कहीं कहीं फसल - चक्रण की विधि अपनाई जा रही है। 
  13. नए उपकरणों का प्रवेश नहीं हो पाया है परंपरागत विधि से खेती करने पर बढ़ी हुई आबादी को भी रोजगार का अवसर मिल जाता है। 
  14. गाय , भैंस , भेड़ , बकरी , सुगर , ऊट इत्यादि जानवरों को अधिक पाला जाता है खेती की उपज कम होने पर ये उनकी आजीविका का काम करते है इनके दूध , मांस , ऊन भी उनके लिए उपलब्ध होते है। 
  15. फसल बरसात के प्रारंभ में बोई जाती है और बरसात समाप्त होते ही उसकी कटाई हो जाती है नम जमीन पर दूसरी फसल खरीफ बोई जाती है सिंचाई की आवश्यकता होने पर बॉस के पाइप , ढेंकुली इत्यादि से सिंचाई भी की जाती है। 
  16. धन के आभाव में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं होता।