Manish Sharma

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता को लिखें ?

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता 

भारत में औद्योगिक विकास की विशेषता निम्नलिखित है :-

  1. निर्यात उद्योग का बढ़ावा  
  2. भारतीय उधमियों में प्रतिस्पर्द्वा की भावना का आभाव 
  3. स्वदेशी आंदोलन का उद्योगों पर प्रभाव 
  4. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद औधोगिकीकरण में तेजी
निर्यात उद्योग का बढ़ावा :- 

भारत में औद्योगिक विकास के संदर्भ में कुछ विशिष्टताएँ स्पष्ट तौर पर नजर आती है भारतीय उद्योगों के प्रबंधन पर यूरोपीय एजेंसियों का नियंत्रण था उद्योगों में भारतीय साहूकार एवं उधमी धन लगाते थे परंतु इनका प्रबंधन गिनी - चुनी यूरोपीय एजेंसियाँ ही करती थी इनकी विशेष प्रकार की उत्पादनों में रूचि थी ये वैसे उत्पादों को बढ़ावा देती थी जिनका निर्यात किया जा सके। इसलिए इन्होंने सरकार से सस्ती जमीन लेकर बागान उद्योग को बढ़ावा दिया चाय और कॉफी के बागान लगवाए गए नील एवं जूट की खेती को प्रोत्साहन दिया गया खनन उद्योग को भी जैसे कोयला उद्योग को विकसित किया गया इन उत्पादों को बड़े स्तर पर निर्यात किया गया भारत में इन्हें नहीं बेचा गया 1850 से 1914 तक निर्यात किए जानेवाले ऐसे सामानों का भी उत्पादन हुआ जो राष्ट्र के लिए लाभदायक थे जैसे चाय और पटसन वैसे माल का भी उत्पादन हुआ जिसमे विदेशी प्रतिद्धंद्विता अधिक नहीं थी जैसे मोटा कपड़ा। 

भारतीय उधमियों में प्रतिस्पर्द्वा की भावना का आभाव :-

जिस समय भारतीय उधमी उद्योगों में पूँजी निवेश कर रहे थे उस समय इंगलैंड में बने कपड़े का भारत में बहुत बड़े स्तर पर आयात किया जा रहा था बाजार में मेनचेस्टर के बने कपड़ो की बाढ़ सी आ गई थी सूत का आयात बहुत अधिक नहीं किया जाता था इसलिए भारतीय सूती मिलों में मोटे सूती धागे ही बनाए गए कपड़ा नहीं। भारतीय मिलों में बनाया गया सूती धागा भारतीय हथकरघा बुनकरों द्वारा व्यवहार में लाया जाता था चीन को इनका निर्यात भी किया जाता था बाद में सूती मिलों में अच्छे कपड़े भी बुने जाने लगे। 

स्वदेशी आंदोलन का उद्योगों पर प्रभाव :- 

लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल विभाजन के परिणामस्वरूप स्वदेशी आंदोलन का व्यापक रूप से विकास हुआ इस आंदोलन ने स्वदेशी की भावना बलवती की तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को बढ़ावा दिया विदेशी वस्त्रो के बहिष्कार से उत्साहित होकर भारतीय उधोगपतियों ने धागा के स्थान पर कपड़ा बनाना आंरभ किया इससे वस्र उत्पादन में गति आई।1912 तक सूती वस्र उत्पादन दोगुणा हो गया उधोगपतियों ने अपने को संगठित कर लिया अपने हितों की सुरक्षा के लिए इन लोगों ने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयात शुल्क में वृद्धि करे तथा देशी उद्योगों को रियायतें प्रदान करे। 20वीं सदी के आरंभ तक चीन को निर्यात किए जानेवाले सूती धागे की मात्रा में अधिक गिरावट आ गई थी इसका कारण था चीनी बाजारों में चीन और जापान के बने वस्रों की भरमार। निर्यात में आई कमी की क्षतिपूर्ति के लिए भारतीय उधमियों ने सूती मिलों में वस्र का उत्पादन बढ़ा दिया। 

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद औधोगिकीकरण में तेजी :-

प्रथम विश्वयुद्ध तक भारत का औद्योगिक विकास धीमी रहा परंतु युद्ध के दौरान और उसके बाद इसमें तेजी आई इसके निम्नलिखित कारण थे :-
  1. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन में सैनिक आवश्यकताओ के अनुरूप अधिक सामान बनाए जाने लगे इसलिए मैनचेस्टर में बननेवाले वस्र उत्पादन में गिरावट आई इससे भारतीय उधमियों को अपने बनाए गए वस्र की खपत के लिए देश में ही बहुत बड़ा बाजार मिल गया फलतः सूती वस्रों का उत्पादन तेजी से बढ़ा। 
  2.  विश्वयुद्ध के लंबा खिंचने पर भारतीय उधोगपतियों ने भी सैनिको की आवश्यकता के लिए सामान बनाकर मुनाफा कमाना आरंभ कर दिया सैनिको की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए देशी कारखानों में भी सेनिको के लिए वर्दी , जूते , जूट की बोरियाँ , टेंट , जीन इत्यादि बनाए जाने लगे इससे देशी कारखानों में उत्पादन बढ़ा। 
  3. युद्ध काल में कारखानों में उत्पादन बढ़ाने के अतिरिक्त अनेक नए कारखाने खोले गए मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि हुई इनके कार्य करने की अवधि में भी बढ़ोतरी की गई। फलस्वरूप उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई। 

Post a Comment

0 Comments